212 1222 212 1222
ये हवाओं की थी साजिश शजर नहीं कहता ।
अलविदा हो के क्यूँ जाएगा शाख से पत्ता ।।
बात कुछ तो तेरी महफ़िल में लग गई होगी ।
दर्द यूं ही कोई चेहरा बयां नहीं करता ।।
याद आएगी मेरी शाम तक नही उसको ।
कब शराबी भी कोई बात होश में कहता ।।
क्यूँ यकीं नही होता है उसे किसी पर भी ।
आग गर न हो तो घर से धुआँ नही उठता ।।
फिर कहा जमाने ने मैंकदों का आँका हूँ ।
गर शराब सस्ती हो रिन्द फिर कहाँ डरता ।।
वो उसूल रखता है हुस्न की हिफ़ाज़त में ।
मत कहो उसे जालिम बेवफ़ा नहीं लगता ।।
-- नवीन मणि त्रिपाठी
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