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जब से शबाबे हुस्न के साँचे में ढल गये ।
कितने हुज़ूर आपके लहज़े बदल गए ।।
निकलो न बेनकाब उसूलों के शह्र में
नीयत से बहुत लोग सुना है फिसल गए ।
एहसान कौन मानता है आजकल यहाँ ।
करने चला हवन तो मेरे हाथ जल गए ।।
सय्याद तेरी बज़्म में मक़तल को देखकर ।
सारे कफ़स को तोड़ परिंदे निकल गए ।।
साकी को है मलाल इसी बात का सुना ।
हम मैकदे में उसके जो पीकर सँभल गए ।।
पढ़ने लगा हूँ आपके लफ्जों के हुस्न को ।
जिस दिन से आप मुझको सुनाकर ग़ज़ल गए ।।
रिश्वत न मांगिये अभी मजबूर हूँ हुजूर ।
इतनी सी बात क्या कही , साहब उछल गए ।।
शोषण के खूँ पसीने पे बुनियाद जिनकी थी ।
अक्सर उसी निज़ाम के तोड़े महल गए ।।
देखी है कहकशां में मुहब्बत की इंतिहा ।
चंदा को देख करके सितारे मचल गए ।।
ज़ख्मी ज़िगर का यार ज़रा राज़ कर बयां ।
किसकी निगाहे नाज़ से ये तीर चल गए ।।
मुंसिफ करेगा कौन सा इंसाफ तू बता ।
जब दाम पर गवाह सदाक़त निगल गए ।।
-- नवीन मणि त्रिपाठी
जब से शबाबे हुस्न के साँचे में ढल गये ।
कितने हुज़ूर आपके लहज़े बदल गए ।।
निकलो न बेनकाब उसूलों के शह्र में
नीयत से बहुत लोग सुना है फिसल गए ।
एहसान कौन मानता है आजकल यहाँ ।
करने चला हवन तो मेरे हाथ जल गए ।।
सय्याद तेरी बज़्म में मक़तल को देखकर ।
सारे कफ़स को तोड़ परिंदे निकल गए ।।
साकी को है मलाल इसी बात का सुना ।
हम मैकदे में उसके जो पीकर सँभल गए ।।
पढ़ने लगा हूँ आपके लफ्जों के हुस्न को ।
जिस दिन से आप मुझको सुनाकर ग़ज़ल गए ।।
रिश्वत न मांगिये अभी मजबूर हूँ हुजूर ।
इतनी सी बात क्या कही , साहब उछल गए ।।
शोषण के खूँ पसीने पे बुनियाद जिनकी थी ।
अक्सर उसी निज़ाम के तोड़े महल गए ।।
देखी है कहकशां में मुहब्बत की इंतिहा ।
चंदा को देख करके सितारे मचल गए ।।
ज़ख्मी ज़िगर का यार ज़रा राज़ कर बयां ।
किसकी निगाहे नाज़ से ये तीर चल गए ।।
मुंसिफ करेगा कौन सा इंसाफ तू बता ।
जब दाम पर गवाह सदाक़त निगल गए ।।
-- नवीन मणि त्रिपाठी
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" सोमवार 15 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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