तीखी कलम से

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

प्रेम दिवस के मुक्तक

बंदिश  से   निकल  आयी  बेबाक  मुहब्बत  है|
करने   लगी   है  सबको   आदाब  मुहब्बत  है ||
ठहरे  हुए  हैं  लम्हें   नजरों  का   कहर  बरपा |
बिखरी  सी  चांदनी  कि  महताब  मुहब्बत है ||



पहरे    हजार    होंगे  ,  परदे    हजार     होंगे |
हसरत   का   फूल   ले  के  वो  बेक़रार   होंगे ||
लहरें   तो साहिलों से लिपटेगी आज खुलकर |
हलचल   है   समंदर   में   बेख़ौफ़  ज्वार होंगे ||



कलियों   ने  गंध  छोड़ी   भौरे   मचल  पड़े हैं |
बरसात  कि  छुवन  से   दादुर  उछल  पड़े हैं ||
मौसम  है  आशिकाना  जज्बात  बह न जाए |
तुम  भी  वहीँ  खड़ी  हो  हम  भी यहीं  खड़े हैं ||


स्वाती  का   बूँद  लेकर   मैं   सीप   ढूँढता   हूँ |
बादल  के  लिए  धरती  की    चीख   ढूँढता  हूँ ||
संवेदना  के  स्वर  से  वाकिफ  हुई  वो जब से |
पायल   की   घुंघरुओं   में  संगीत   ढूँढता   हूँ ||


खुद  की कलम से खास  ,इश्तिहार  भेजता हूँ |
नदियों  को  समंदर  का  मैं  प्यार  भेजता  हूँ ||
इजहारे   मुहब्बत   का   झंडा   बुलंद   रखना |
होगा  मुकाम  हासिल    करार    भेजता    हूँ ||



 ये  शरबते  इश्क़   है  पीना बहुत  संभल  के |
तासीरे  आग  है  ये  कुर्बान  न  हो   जल के ||
जब जब शमा से यारी कर ली  है  पतंगों  ने |
खोया है पंख अक्सर आये थे जब निकल के ||