तीखी कलम से

बुधवार, 23 नवंबर 2011

वतन की आबरू का ये तमाशा और कब तक है

बेटियों   को जलाने  का यहाँ  पर  दौर कब तक  है |
वतन  की  आबरू  का ये  तमाशा  और कब तक है ||

साजिसों  का चलन है देश को  बेचेंगे  वो इक दिन |
तुम्हारे   डूबते   ईमान  में  अब  जोर  कब  तक  है ||

रोया  है  यहाँ   जंगल  भी  जलते   आशियाने   पर |
भरोसा  कुछ नहीं अब तो यहाँ पर मोर कब तक है ||

 टूटती     साँस    में   नाब्जों   को    ढूढ़ते  क्यूँ   हो |
जिन्दगी बुलबुला है जिन्दगी की डोर कब तक है ||

 रात   गुजरेगी    भला   कैसे    इस    तन्हाई    में |
जिगर  ने  वक्त  से  पूछा बताओ भोर कब तक है ||
हर  तरफ  खौफ   है   बरबादियों   के   मंजर  का |
उड़ा क्र नीद शहरों की  छिपा ये चोर कब तक है ||

बादलों  से  भी  क्या  शिकवा  करूं  उम्मीदों  का |
सूखती आँख से बरसात ये घनघोर  कब  तक है ||

किसी आतंक  के  साये  में  बेचीं  जिन्दगी  उसने |
यहाँ कुनबों के कत्ले आम का ये शोर कब तक है ||

वतन को बेचने वालों वतन  को   खूब  बेचो  तुम |
सोच लेना  ज़माने  में  तुम्हारा  ठौर कब तक है ||
                                                                                -नवीन




 

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