तीखी कलम से

बुधवार, 23 नवंबर 2011

दो गज़लें

                                           दो गज़लें 

                          - नवीन मणि त्रिपाठी 
                                     G1/28 अर्मापुर इस्टेट
                                         कानपुर-०९८३९६२६६८६

यहाँ सस्ता नहीं कुछ भी, यहाँ तो  नाम बिकता है |
तुम्हारे  जहाँ   का  ईमान , तो  बेदाम  बिकता  है || 

सिसकती माँ के आँचल से तड़प कर भूख से रोया |
मिला कर दूध में पानी, तो  सुबहो शाम बिकता है ||  

वो  लज्जा है ,हया  है ,शर्म  है ,आँखों  का  पानी है |
शहर में आबरू अस्मत भी  खुले आम  बिकता है ||
उसे बिकता हुआ देखा तो  अश्कों ने  भिगो डाला |
करूं क्या  एक  की चर्चा, यहाँ  आवाम बिकता है ||
बाप  मजबूर  था , बेटी  का दूल्हा  ला नहीं पाया |
मंडी  में  यहाँ  दूल्हा  भी   एक  दाम  बिकता  है ||

मौत   की   खातिर  शुकूं  ढूढ़ा   इसी  बाज़ार  में  |
 क्या  खबर  थी  अब  यहाँ  कोहराम  बिकता  है ||

वो  शातिर है  वो झूठा है जमाना  खूब वाकिफ है |
उसी   ताज  है  हासिल  यहाँ   ईनाम  बिकता  है ||

बेचने  वालों  ने  छोड़ा  नहीं  कुछ  भी  यहाँ  यारों  |
कहीं जीसस ,कहीं अल्ला कहीं पर राम बिकता है ||


                     २


वतन   की  आबरू  को  दागदार  मत करना |
चमन की खुशबुओं को शर्मशार मत करना ||

वो   परिंदा  है    कहीं  उसका    बसेरा   होगा |
इसी   दरख्त  पे  तुम  इंतजार  मत  करना ||

साजिशों  का  है  चलन  अब  तेरे मैखाने में |
किसी  पैमाने  का  तुम  ऐतबार मत करना ||

कभी मंदिर कभी मस्जिद से पुकारा तुमने |
वही  तो  एक  है   उसमें  दरार  मत  करना ||

ये  गोलियां  ये  धमाके  हैं  कायरों के करम|
बे  कसूरों  पे  कभी  दर्दे  वार   मत   करना ||

आज फिर भूख ने मांगी है जिन्दगी उसकी |
किसी की रोटियों  को  यूँ  फरार मत करना ||

भारती  माँ  है  रोज़  इसकी  इबादत  करना |
माँ  के आंशू  को  कभी नागवार मत करना || 

1 टिप्पणी:

  1. वाह! क्या बात है? वैसे एक मसयने में यहां सबकुछ सस्ता है जैसे इज्जत, मान मर्यादा अस्मत आदि क्या नहीं सस्ता है? जब चाहो ख़रीद लो, जब चाहो बेच दो।

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