तीखी कलम से

रविवार, 23 दिसंबर 2012

गज़ल

मरहम  के लिए अब कोई सरकार  नहीं है ।
मजदूर  को  एहसान  की  दरकार  नहीं  है ।।

गुम  हो रहीं हैं अब तो  सहादत की फाइलें ।
ज़माने को अब तो  उनका ऐतबार  नहीं है ।।

क्यूँ शौक से पढ़ते मेरे दिल की किताब को ।
कुछ तो करो  जनाब  ये  अख़बार  नहीं  है ।।

कश्ती  के डूबने का फ़िक्र क्यूँ हुआ उनको  ।
सूखी नदी  में जब  यहाँ  मजधार  नहीं  है ।।

बिखरी हुई है लाली जो  होठों पे  उनके आज ।
अब  वक्त  का  उन्हें  भी  इंतजा
र  नहीं  है ।।

सहमी हुई कली है क्यों भौरों की  नजर से ।

मतलब के लिए प्यार का बाजार   नहीं है ।।


15 टिप्‍पणियां:

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  2. वाह नवीन जी बहुत शानदार ग़ज़ल कही है दाद कबूल करें

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  3. बहुत अच्छी गज़ल नवीन जी...
    बढ़िया शेर!!

    सादर
    अनु

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  4. वाह ... बहुत खूब
    बेहतरीन प्रस्‍तुति

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  5. क्यूँ शौक से पढ़ते मेरे दिल की किताब को ।
    कुछ तो करो जनाब ये अख़बार नहीं है ...

    बहुत खूब ... सभी श्जेर लाजवाब ... सुभान अल्ला ...

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  6. बेहतरीन गज़ल ... आज के समय के लिए सटीक

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  7. सब के सब शेर एक पर एक..बहुत उम्दा ग़ज़ल.

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  8. आपकी यह प्रस्तुति अच्छी लगी। मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद।

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