तीखी कलम से

सोमवार, 8 जुलाई 2013

बन के काली घटा वह बरसती रही

जिन्दगी थी अमावस  की काली निशा ,चादनी  की तरह  वह बिखरती रही |
रौशनी के लिए जब शलभ चल पड़े ,जाने  क्यूँ रात भर वह सिसकती रही ||


जब पपिहरे की पी की सदा को सुनी ,और भौरों ने कलियों से  की  आशिकी |
कोई  शहनाई  जब भी बजी  रात में ,कल्पना  की  शमा  में  मचलती  रही ||


मन में तृष्णा जगी फिर क्षुधा भी जगी , एक संगीत  की नव विधा  भी जगी |
जब सितारों से  झंकृत प्रणय स्वर मिले ,गीत रस को लिए वह  बहकती रही ||


शब्द  थे  मौन ,पर  नैन सब कह गए ,मन की सारी व्यथा की कथा कह गये |
ज्वार  आया  समंदर  की  लहरें  उठी ,वह  नदी  तो  मिलन  में उफनती रही ||


उम्र  दहलीज  पर  दस्तकें  दे  गयी , अनछुई  सी  चुभन  भावना  कह  गयी |
एक   शैलाब  से   डगमगाए  कदम ,वक्त  की   धार  से  वह  फिसलती  रही ||


एक  ज्वालामुखी  जल  उठी  रात  में , साँस  दहकी  बहुत,  तेज  अंगार  में |
जब  हवाओं  ने  लपटों  से  की  दोस्ती ,मोम  का  दीप बन के पिघलती रही ||


आज  सावन   की  पुरवा   हवा  जो  चली , द्वंद  संकोच  ठंढी  पवन  ले  उडी |
चेतना  खो  गयी  एक  तन्द्रा  मिली ,बन  के  काली  घटा  वह  बरसती रही ||
                                        "नवीन"

सोमवार, 1 जुलाई 2013

फिर भी बड़े गुमान मे दिखता है तिरंगा

हो  जाए  फ़रेबों  का  ना  व्यापार  ये मंदा |
होने  लगा  ईमान  का  अखबार  मे धंधा ||

मंदिर व  मस्जिदों  मे  वे  खैरात  कर  रहे |

आया जो जलजला तो मिला मौत का फंदा||

मठ  के हैं हुक्मरान वे  दौलत की निशानी |

इंसानियत के नाम पर  निकला नहीं चंदा ||

भूखा  हुआ इंसान भी  बेबस  है इस  कदर |

लाशों को नोच नोच के मजहब किया गंदा ||

वे रहनुमा हैं उनका भी अब काम अहम है |

इनकी  करें  निंदा कभी उनकी करें  निंदा ||

इज्जत भी बचाने मे है मोहताज आदमी |

करने लगा है  वक्त  भी  इंसान  को  नंगा ||

कचरे मे जहर फेकते  क्यों उसकी  राह में|

बर्बाद ना  कर दे  तुम्हें इस बार  भी गंगा ||

अब  दौर   है  चुनाव   का  सेकेंगे  रोटियाँ |

इस शहर मे होगा कहीं  इस बार भी  दंगा ||

प्रतिभा है दर किनार यहाँ वोट की खातिर |

फिर भी बड़े गुमान मे दिखता  है तिरंगा ||

                                         Naveen Mani Tripathi