तीखी कलम से

गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

कत्ल की एक शाम हो जाए

             ग़ज़ल
चलो   उनसे   सलाम   हो  जाए ।
इस   तरह   इंतकाम  हो  जाए ।।


चाँद  से  डर  था   बेवफाई   का ।
उसका  किस्सा  तमाम हो जाये ।।


बहुत   लम्बी    है  दास्तां   तेरी ।
कुछ  अधूरा  कलाम  हो जाए ।।


बे वजह  जिद है रूठ  जाने  की ।
अब   तेरा   इंतजाम   हो   जाए ।।


टूट के गिरना ही उसकी  फितरत ।
बेवफा   उसका  नाम   हो  जाए ।।


बड़ी   सहमी  अदा  तबस्सुम  की ।
कत्ल  की   एक   शाम  हो  जाए।।


         नवीन

4 टिप्‍पणियां:

  1. हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शुक्रवार (03-04-2015) को "रह गई मन की मन मे" { चर्चा - 1937 } पर भी होगी!
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    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. "चलो उनसे सलाम हो जाए ।
    इस तरह इंतकाम हो जाए ।।"
    .. बहुत सुन्दर!

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