तीखी कलम से

सोमवार, 29 जून 2015

ग़ज़ल

-----***ग़ज़ल ***----

रफ्ता  रफ्ता  जिंदगी   की  आरजू   जाती  रही ।
दरमियाँ  तन्हाइयों  के  मौत  कुछ   गाती  रही ।।

मत   कहो   वो   बेवफा  थी  आसनाई   में   मिरे।
वो   खयालो  में  मेरे   यूँ  रात  भर  आती   रही।।

बारिशें मुमकिन  कहाँ  जो भीग जाते  हम  कभी ।
बनके  सावन  की  घटा  ता  उम्र  वो  छाती  रही ।।

रोज़ रुसवाई की  चर्चा  फ़िक्र का अपना शबाब।
मैं जलूँगी  ख़ाक होने  तक  कसम  खाती  रही ।।

फिर  समंदर  ने गुजारिश  की है लहरो  से  यहां।
साहिलों  की  तश्नगी  पर जुल्म क्यों ढाती रही ।।

माँ  यतीमों  की  तरह  मजबूर  हो  करती  बसर।
जो  दुआएं   मांग   कर  मेरे   लिए   लाती  रही ।।

जिसकी आँखों  में शरारत  वो  थी  महबूबा  मेरी ।
पर  जो नज़र खामोश थी  बीबी वही भाती रही  ।।

                           --नवीन मणि त्रिपाठी

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