तीखी कलम से

रविवार, 8 नवंबर 2015

चल नकाबों में ज़माने की नज़र पाक नहीं


----***ग़ज़ल***-----

चल  नकाबो  में  जमाने  की नज़र  पाक  नहीं ।
कीमती  हुश्न  ये  हो  जाए  कही  ख़ाक  नहीं ।।

अजनबी  बनके  गली  से  यूँ  गुजरना उसका ।
दिल जलाने की थी साजिश ये इत्तिफ़ाक नहीं ।। 

ताल्लुक  वक्त  के   साये  में   बदलते  अक्सर ।
फितरते  इश्क  में जिन्दा  कोई  इख़लाक़ नहीं ।।

रियासत   डूब   न   जाए    लहू   परस्ती   में ।
है  ढलानों   पे  आफताब ,यह  मजाक  नहीं ।।

मुन्तजिर   हो  के  हैं गुजरी  तमाम  रात यहां ।
मेरी  उम्मीद का  दामन  अभी  हलाक  नहीँ ।।

नाम  लिखती  रही   वो  रेत  पर  तन्हाई  में ।
लोग  कहते  हैं  जिसे  वो  तेरे  फिराक  नहीं।।

वो  रकीबों  के  मुहब्बत  पे  बे  हिचक  बोली ।
ये  तो  रुसवाई  थी  मेरा  कोई  तलाक  नहीं ।।

पसलियां गिन  के आबरू  न मिटा तू उसकी ।
मुद्दतों  से  उसे   मिलती  कोई  खुराक   नहीं ।।

            -नवीन मणि त्रिपाठी

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 10 नवम्बबर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  2. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (10.11.2015) को "दीपों का त्योंहार "(चर्चा अंक-2156) पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ, सादर...!

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