तीखी कलम से

सोमवार, 28 दिसंबर 2015

बिक रही बाजार अस्मत आजकल


इस   कदर  रूठी   है  किस्मत  आजकल।
बे  वजह  लगती   है  तोहमत  आजकल।।

जिसने   तोडा   मुल्क   का  हर  हौसला ।
बन  रही  उसकी  भी  तुरबत  आजकल।।

चन्द   लम्हों    की    लगी   हैं   बोलियाँ ।
अब  कहाँ मिलती है मोहलत आजकल।।

ढूंढ   मत   इन्साफ   की   उम्मीद  अब ।
हर तरफ जहमत ही जहमत आजकल ।।

मत   कहो   मजबूरियों  को  शौक  तुम ।
बिक  रही   बाज़ार  अस्मत  आजकल ।।

लुट  गयी   जागीर   उस   अय्यास  की ।
वह मिटा  है उसकी  निस्बत आजकल ।।

गैर   मुमकिन   है   सराफत   हो    बची ।
हो   गयी  मशहूर   सोहबत   आजकल ।।

वास्ता  जिसका   खुदा   से  कुछ  न था ।
फिर  वहीँ  बरसी  है  रहमत  आजकल ।।

      --नवीन मणि त्रिपाठी

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