तीखी कलम से

गुरुवार, 1 दिसंबर 2016

कितने ज़ालिम हैं अदाओं से जलाने वाले

2122 1122 1122 22 
मांग  इनसे  न  दुआ  जख़्म   दिखाने  वाले ।
दौलते   हुस्न    में   मगरूर   ख़जाने   वाले ।।

जो निगाहों  की गुजारिश से खफा  रहता है ।
कितने जालिम हैं अदाओं से  जलाने  वाले ।।

एक   मुद्दत  से  तेरी  राह  पे   ठहरी  आँखें ।
क्या मिला तुझ को हमे  छोड़ के जाने वाले ।।

था  रकीबों  का  करम  शाख  से टूटा  पत्ता ।
यूं    निभाते  है  यहां   फर्ज  ज़माने    वाले ।।

टूट  जाते  है  वो  रिश्ते  जो  कभी थे चन्दन ।
 इश्क़  क्यों जुर्म  है मजहब को चलाने वाले ।।

मेरी उल्फत के जनाजे को उठाया जिस दिन ।
कुछ   नकाबों   में   मिले  तेरे   घराने   वाले ।।

चाँद देखोगे तो इस चैन का  जाना  मुमकिन ।
रुख  से  महबूब   के  पर्दे  को  हटाने  वाले ।। 

है फरेबों  का चलन  दिल न  लगाना  इतना ।
लूट    जाते   हैं   हमें  रोज   फ़साने   वाले ।।

पूछ हमसे न कभी नींद का  आलम  क्या है ।
रात   यादों    में   सताते   है  जगाने   वाले ।।

रूठ  जाए  तो  उसे  प्यार से सज़दा करना ।
याद  रखना   हैं   कई  और   मनाने   वाले ।।

               नवीन मणि त्रिपाठी

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