तीखी कलम से

मंगलवार, 28 मार्च 2017

ग़ज़ल- वो मुकद्दर इस तरह से आजमाना चाहता है ।।

2122  2122  2122  2122
हाथ  पर  बस  हाथ रखकर  याद आना चाहता है ।
वो मुकद्दर   इस  तरह  से  आजमाना  चाहता  है ।।

बेसबब  यूं ही  नही  वह  पूछता  घर का पता अब  ।
रस्म  है  ख़त  भेजना  शायद   निभाना  चाहता है ।।

स्याह रातों का है  मंजर  चाँदनी  मुमकिन  न होगी ।
रोशनी  के  वास्ते   वह   घर   जलाना   चाहता  है ।।

गुफ्तगूं होने लगी है  फिर  किसी  का  क़त्ल  होगा ।
है कोई   मासूम  आशिक़  सर  उठाना  चाहता  है ।।

शह्र में दहशत का आलम है रकीबों  का असर भी ।
तब भी वह अहले ज़िगर से इक फ़साना चाहता है ।।

चार सू  खुशबू  हवा  में सुर्ख है चेहरा  किसी  का ।
चन्द लम्हों  के  लिए  वह दिल  लुटाना  चाहता है ।।

नफरतों  के इन सियासी  अब्र  से है  तीरगी  यह  ।
अब कोई सूरज अमन   का डूब  जाना चाहता है ।।

मत वफ़ा का जिक्र कर उससे वफ़ा होगी भला कब ।
वो गुहर ख़ातिर सदफ़ पर जुल्म ढाना  चाहता है ।।

गो के अब अच्छा मुसाफ़िर कह रहे हैं लोग उसको ।
दाग रहजन का  वो  दामन  से  मिटाना  चाहता  है ।।

बैठ जाते  हैं  परिंदे   जब   मुहब्बत  के  शज़र  पर ।
है  कोई  जालिम ,कबूतर  पर   निशाना  चाहता है ।।

दर्द के इज़हार से हासिल हुआ यह  फ़लसफ़ा  भी ।
यह  ज़माना  हाल  पर  बस  मुस्कुराना  चाहता है ।।

                 -- नवीन मणि त्रिपाठी

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