तीखी कलम से

सोमवार, 29 मई 2017

कुछ लहू भी लगता है आशियाँ बनाने में

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चाहतें    जवाँ   होगी  इस तरह ज़माने  में ।
है  कहाँ  तेरा  सानी  बिजलियाँ  गिराने  में ।।

दौलतें   नही  काफी  प्यार  भी  जरूरी   है ।
कुछ लहू भी लगता है आशियाँ  बनाने  में ।।

बे नकाब  मत  आना  ये मेरा  तकाज़ा  है ।।
उम्र    बीत  जाएगी   हुस्न  को  भुलाने   में ।

रूठ  कर  नहीं  जाना बेकरार  महफ़िल से ।
हस्तियां  मिटी  कुछ  हैं महफिले  सजाने में ।।

वो किसीकी ख्वाहिश में घरको छोड़ आई है ।
लुट  गए  हजारों  घर  इश्क़ आजमाने  में ।।

रात   के  अंधेरों   में   आरजू  बिखरती  है ।
रोज  टूट जाता हूँ दिल से  दिल मिलाने में ।।

मुद्दतों की यादें थीं  जल  गई वो  बस्ती भी ।।
क्या  मिला  रकीबों  से आग  को लगाने  में ।।

सुर्ख  है  तेरा  चेहरा  मैकसी  का  आलम  है ।
रूह क्यों  हिचकती है जिस्म को जगाने में ।।

तेरी   आसनाई  में  कुछ  नया  तो  होगा ही।
आसुओं से भीगे हम  इक  ग़ज़ल सुनाने में ।। 

                   -- नवीन मणि त्रिपाठी

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