तीखी कलम से
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ग़ज़ल - हमारे इश्क़ की तहरीर
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हमारे इश्क की तहरीर गर मंजूर हो जाये ।
हमारे जख्म का हर दर्द भी काफूर हो जाये ।।
दुपट्टे को हवा में यूं उड़ाकर क्या मिला तुझको ।
मुझे डर है न दीवाना कहीं मशहूर हो जाये ।।
अना के साथ उसके हुस्न की होती नुमाइश है ।
कहीं ऐसा न् हो तारीफ से मगरूर हो जाये ।।
मुहब्बत रोज जिंदाबाद हो अहले चमन में अब ।
तुम्हारे शहर का भी कुछ नया दस्तूर हो जाये ।।
मुकम्मल हो तबस्सुम का नज़ारा इन फिजाओं में ।
कोई सूखा हुआ चेहरा भी अब अंगूर हो जाये ।।
तुम्हारी इस तरक्की से बहुत डरने लगा है वो ।
न हक से बेदखल कोई यहां मजदूर हो जाए ।।
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