तीखी कलम से

शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

ग़ज़ल - माना कि तेरे दिल की इनायत भी बहुत थी

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माना कि तेरे दिल  की  इनायत  भी बहुत थी ।
पर साथ इनायत के हिदायत  भी  बहुत थी ।।

आते  थे  वो  बेफिक्र  मेरे   शहर  में  अक्सर ।
तहजीब  निभाने  की  रवायत  भी  बहुत थी ।।

महंगे  मिले  हैं  लोग  मुहब्बत   के  सफ़र   में ।
यह बात अलग है  कि  रिआयत भी  बहुत  थी।।

चेहरे   को   पढा  उसने कई बार   नज़र   से ।
महफ़िल में तबस्सुम की किफ़ायत भी बहुत थी ।।

वो  हार  गए  फिर  से   अदालत   में   सरेआम ।
हालाकि  नजीरों  की  हिमायत  भी  बहुत  थी ।।

छूटी  हैं  किताबें   भी  वही   उस  से  अभी  तक ।
जिस पर लिखी कुरआन की आयत भी बहुत थी ।।

क्यों   पूछ  रहे  हैं   मेरे  दिल  का   वो   फ़साना ।
उनको तो  मुहब्बत  से  शिकायत भी  बहुत  थी ।।

            ---नवीन मणि त्रिपाठी
             मौलिक अप्रकाशित

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