तीखी कलम से

गुरुवार, 12 अक्टूबर 2017

ग़ज़ल - मौत के बाद सभी फ़र्ज़ निभाने आये

ग़ज़ल
2122 1122 1122 22
यार  जितने  थे   नए  और   पुराने  आये ।
मौत  के बाद सभी  फर्ज  निभाने  आये ।।

कौन सुनता है यहां जिंदगी की आहट को ।
हौसले  जब  भी  बढ़े लोग मिटाने आये ।।

तीरगी  खूब  सलामत  है  तेरी  बस्ती में ।
वो  अदावत में चिरागों को बुझाने आये ।।

कुछ हुकूमत का नशा और नशा दौलत का ।
होश  उनके भी अभी तक न ठिकाने आये ।।

पेट की आग जलाती है कहाँ तक हम को ।
छोड़ कर  माँ को बहुत दूर कमाने आये ।।

शह्र में हम भी बड़े नाज़ से आये थे मगर ।
दर  बदर  ठोकरें  खाने  के ज़माने आये ।।

न्याय बिकता है यहां रोज़ तिज़ारत होती ।
उसके हिस्से में भी इफ़रात ख़जाने आये ।।

लूट लेते  हैं  अमन  शौक से कुर्सी ख़ातिर ।
वो  चुनावों  में  यहाँ  वोट  भुनाने  आये ।।

जात के नाम  पे छिनतीं  हैं यहां रोजी तक ।
फिर शिगूफ़ों से वो मरहम को लगाने आये।।

ये सियासत है जरा गौर से देखो आलिम।
मुल्क के लोग हैं जो मुल्क जलाने आये ।।

राम  के  साथ  चलाते  हैं  कई  धंधे  अब।
उनकी सीरत के सरे आम फ़साने आये ।।

ये  उमीदें न बिखर जाएं कहीं जनता की ।
कई  कानून   भरोसे   को  उठाने   आये ।।

आज इंसाफ की ख़ातिर हैं भटकती रूहें ।
ख़ाक क़ातिल के सबूतों को जुटाने आये ।।

         --- नवीन मणि त्रिपाठी 
             (मौलिक अप्रकाशित )

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