तीखी कलम से

गुरुवार, 10 मई 2018

वो सावन का कोई दरिया नहीं था

जमीं  पर चाँद  क्यूँ  उतरा  नहीं   था ।
कभी  सूरज  जहाँ ढलता  नहीं  था ।।

बहा  ले  जाए   तुमको   साथ  अपने ।
वो  सावन  का  कोई  दरिया  नहींथा।।

मेरे  महबूब की  महफ़िल  सजी थी ।
मगर  मेरा   कोई  चर्चा   नहीं   था ।।

मैं   देता   दिल  भला   कैसे   बताएं ।
सही कुछ  आपका  लहज़ा नहीं था ।।

जरा  सा  ही  बरस  जाते  ऐ   बादल ।
हमारा  घर  कोई   सहरा  नहीं   था ।।

जले   हैं  ख्वाब  कैसे   आपके   सब ।
धुंआ  घर  से  कभी  उठता  नहीं था ।।

तुम्हारी    हरकतें    कहने   लगीं   थीं।
तुम्हारा   प्यार   तो  सच्चा  नहीं   था ।।

बयाँ गम कर गया फितरत थी उसकी ।
जो  आंसू  आँख  में  ठहरा  नहीं  था ।।

सुना   हूँ  आजकल  वो  पढ़  रहा  है ।
मेरे  चेहरे  को जो  पढता नहीं   था ।।

जरूरत पर  हुआ  है  मुन्तजिर  वो ।
हमारे  दर  पे  जो रुकता  नहीं था ।।

नया    है  तज्रिबा   मेरा   भी  यारों ।
कभी मैं इश्क़ में उलझा  नहीं था ।।

ख़फ़ा   है   वह  हमारी  आरजू   से ।
जो हमसे आज तक रूठा नहीं था ।।

बता    देते    मुहब्बत    गैर   से   है ।
हमारा    आपसे   पर्दा   नहीं   था ।।

             नवीन मणि त्रिपाठी

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