तीखी कलम से

सोमवार, 1 अक्टूबर 2018

मगर गद्दारियां तेरी हमेशा याद रक्खेंगे

बड़ी  उम्मीद  थी  उनसे  वतन  को  शाद  रक्खेंगे ।
खबर क्या थी चमन में वो सितम आबाद रक्खेंगे ।।

है  पापी   पेट   से   रिश्ता  पकौड़े  बेच  लेंगे   हम।
मगर    गद्दारियाँ    तेरी    हमेशा    याद   रक्खेंगे ।।

हमारी  पीठ  पर  ख़ंजर चलाकर आप  तो  साहब ।
नये जुमले  से  नफ़रत  की  नई  बुनियाद  रक्खेंगे ।।

विधेयक  शाहबानो  सा  दिये  हैं फख्र से  तोहफा ।
लगाकर  आग  वो  कायम  यहां  उन्माद  रक्खेंगे ।।

इलक्शन आ रहा है दाल गल जाए  न  फिर उनकी।
तरीका   हम   भी   अपने  वास्ते  ईज़ाद   रक्खेंगे ।।

बहुत अब हो चुका हिन्दू मुसलमां का  यहाँ नाटक ।
तुम्हारी  ख्वाहिशों  को  हम  तो  मुर्दाबाद  रक्खेंगे ।।

मिटा  देने  की  जुर्रत  आपने  बेशक़  किया साहब ।
सवर्णो   की   ख़ुशी  को  लोग  जिंदाबाद  रक्खेंगे ।।

ये  हिंदुस्तान  है  प्यारे पता है असलियत  सबकी ।
कहाँ  पर  वोट  की  घटती  हुई  तादाद  रक्खेंगे ।।

अभी  तो  वक्त  है  कर  लें  तमन्ना जुल्म की पूरी ।
नहीं  हम  आपसे  कोई ।कभी  फ़रियाद रक्खेंगे ।।

मिली सत्ता थी इस खातिर मिटेगा जातिवादी विष ।
भला  जनता  से  कैसे  आप अब  संवाद  रक्खेंगे ।।

निजी  हाथों  में  भारत  का  मुकद्दर  बेच डाला है ।
बचाकर  रोजियां  कितनी  यहां  उस्ताद  रक्खेंगे ।।

           नवीन मणि त्रिपाठी 
          मौलिक अप्रकाशित

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें