तीखी कलम से

रविवार, 4 नवंबर 2018

वो नादां उसे तज्रिबा ही नहीं है

अभी तो यहाँ कुछ  हुआ  ही  नहीं है ।
वो  नादां  उसे  तज्रिबा  ही  नही  है ।।

उसे ही  मिलेगी  सजा हिज्र  की अब ।
मुहब्बत में जिसकी ख़ता ही नहीं  है ।।

अगर आ गए हैं तो कुछ  देर  रुकिए ।
अभी  तो  मेरा  दिल भरा ही नहीं है ।।

है बेचैन कितना वो आशिक  तुम्हारा ।
कहा  किसने जादू  चला ही नहीं है ।।

जिधर जा रही वो उधर जा रहे हम ।
हमें जिंदगी  से  गिला  ही नहीं  है ।।

मिलेगा कहाँ  से  हमें  कोई  धोका ।
हमें  आप  का  आसरा  ही नहीं है ।।

बताने लगा है ये नफरत का लहज़ा ।
मेरा खत वो अबतक पढ़ा ही नहीं है ।।

भरोसा न कीजै यहाँ पर  किसी  का ।
सियासत में कोई  सगा ही  नहीं  है ।।

यहाँ हाले  दिल पूछते  हैं  वो  जैसे ।
कि उनको मेरा गम पता ही नहीं है ।।

करूँ अर्ज  कैसे  ज़माना है क़ातिल ।
चमन  में  कहीं  देवता ही  नहीं  है ।।

लगी आग बेशक जली दिल की बस्ती ।
धुंआ देखिये  कुछ उठा  ही नहीं  है ।।

नवीन मणि त्रिपाठी 
मौलिक अप्रकाशित

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