तीखी कलम से

रविवार, 4 नवंबर 2018

हम देखते ही रह गए दिल का मकां जलता हुआ

2212 2212 2212 2212

आसां कहाँ यह इश्क था मत पूछिए क्या क्या हुआ ।
हम देखते  ही  रह गए दिल का मकाँ  जलता हुआ ।।

हैरान   है   पूरा   नगर   कुछ  तो  ख़ता   तुमसे   हुई ।
आखिर मुहब्बत पर तेरी क्यों आजकल पहरा हुआ ।।

पूरी  कसक  तो  रह  गयी  इस  तिश्नगी  के  दौर  में ।
लौटा तेरी महफ़िल से वो फिर हाथ ही मलता हुआ ।।

दरिया  से  मिलने  की  तमन्ना   खींच  लायेगी  उसे ।
बेशक़  समंदर आएगा साहिल तलक  हंसता हुआ ।।

मुमकिन  कहाँ  है जख्म गिन  पाना नये हालात में ।
घायल  मिला है वह मुसाफ़िर वक्त का मारा हुआ ।।

यूँ ही ख़फ़ा क्यूँ हो गए किसने कहा कुछ आपको ।
क्यों  मुस्कुराना   आपका  बेइंतिहा  महँगा  हुआ ।।

जब  आसमाँ से चाँद उतरा था मेरे  घर  दफ़अतन ।
इस शह्र में इस बात का भी मुख़्तलिफ़ चर्चा हुआ ।।

जब सर  उठाने  हम  चले  खींचे गये  तब  पॉव  ये ।
उनको  गवारा  था  कहाँ  देखें  हमें  उठता  हुआ ।।

अब इस कफ़स के दायरे से खुद को तू आज़ाद कर।
कहता  गया  मुझसे  परिंदा फिर कोई उड़ता हुआ ।।

           --नवीन मणि त्रिपाठी 
           मौलिक अप्रकाशित

2 टिप्‍पणियां: