तीखी कलम से

रविवार, 10 फ़रवरी 2019

सच पे लटका हुआ खंज़र है कई सदियों से

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सच  पे  लटका  हुआ ख़ंजर  है  कई सदियों से ।
कैसे   ज़िन्दा  ये  सुख़नवर  है  कई  सदियों  से ।।

लूट   जाते    हैं  यहाँ  देश   को    कुर्सी   वाले ।
देश  का  ये  ही  मुक़द्दर  है  कई   सदियों  से ।।

क्या   बताएंगे   मियाँ  आप   तरक्क़ी  मुझको ।
शह्र  में  भूख  का  मंजर  है  कई  सदियों  से ।।

आप  भी  ढूढ़  नहीं  पाए  ख़ुदा  की  रहमत  ।
आपके  साथ  तो  रहबर  है  कई  सदियों से ।।

दौलतें  हो   गईं  लिल्लाह   न  जानें   कितनीं ।
घर सभी  को  न मयस्सर है  कई  सदियों से ।।

बढ़ न पाया है मुहब्बत का शजर आज तलक ।
ये  जमीं  देखिए   बंजर  है  कई  सदियों.  से ।।

ऐ मुसाफ़िर  तू जरा  सोच  समझकर  चलना ।
अम्न  की  राह  में पत्थर  है कई  सदियों से ।।

दाम  उनका  भी   लगाते   हैं  खरीदार  यहाँ ।
जिनका ईमान  तो  कट्टर है  कई सदियों से ।।

पीते   हैं   लोग  यहाँ   ज़ह्र  भी  मज़बूरी.  में ।
ज़िंदगी .मौत .से  बद्तर  है  कई सदियों  से ।।

बाद मरने के उन्हें  मिल सकी  है जन्नत क्या ?
प्रश्न  यह  भी  तो  निरुत्तर है कई सदियों  से ।।

ख़ास किरदार से हासिल तो करें कुछ  साहब ।
दास्तानों  में   सिकन्दर . है  कई  सदियों   से ।।

      --डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

11 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-02-2019) को "फीका पड़ा बसन्त" (चर्चा अंक-3245) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. आ0 शास्त्री जी सादर नमन के साथ सप्रेम आभार

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन वो अपनी दादी की तरह लगती है : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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    1. आ0 सेंगर साहब तहेदिल से बहुत बहुत शुक्रिया

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  3. आ0 तृप्ति जी सादर नमन के साथ हार्दिक आभार

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