तीखी कलम से

शुक्रवार, 7 जून 2019

वो मक़तल में कैसी फ़ज़ा मांगते हैं

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वो मक़तल  में  कैसी  फ़ज़ा माँगते  हैं ।।
जो क़ातिल से उसकी अदा माँगते  हैं ।।

जुनूने  शलभ  की  हिमाकत  तो देखो ।
चरागों  से  अपनी   क़ज़ा   माँगते   हैं।।

उन्हें  भी  मिला  रब  सुना  कुफ्र  में  है ।
जो अक्सर  खुदा  से  जफ़ा  माँगते  हैं ।।

असर  हो  रहा  क्या जमाने का उन पर ।
वो    क्यूँ   बारहा   आईना   माँगते  हैं ।।

अजब कश्मकश है मैं किससे कहूँ अब ।
यहां   बेवफ़ा    ही   वफ़ा   माँगते    हैं ।।

जिन्हें पीना आया  है नजरों  से  साकी ।
वही   होश   आते   नशा    माँगते   हैं ।।

उन्हीं  को  मिली  है  सजाएं  यहां  पर ।
मेरे  हक़   में  जो   फैसला  माँगते  हैं ।।

शज़र  सूखते  जब   कहीं  तिश्नगी  से।
तो बादल  से  काली  घटा  माँगते  हैं ।।

मैं दिल कैसे दूँ खेलने  के  लिए  अब ।
जरा   सोचिए  आप  क्या  माँगते  हैं ।।

करो कुछ तो उनपे भी नज़रे  इनायत ।
तुम्हारे   लिए  जो   दुआ  माँगते  हैं ।।

यकीनन  वही   लोग  होंगे   सितमगर।
जो  रिश्ता  यहाँ  जिस्म का  माँगते  हैं ।।

         डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
         मौलिक अप्रकाशित

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