तीखी कलम से

शुक्रवार, 7 जून 2019

पर ये इल्ज़ाम भी तूफ़ान के सर जाना था

2122 1122 1122 22

मेरी कश्ती का मुक़द्दर ही बिखर जाना था ।
पर ये इल्ज़ाम भी तूफ़ान के सर जाना था ।।

तिश्नगी ले के वो आया है वहाँ से देखो।।
रिन्द को पी के जहाँ हद से गुज़र जाना था ।।

आ गया कैसे तेरे दर पे  खुदा ही जाने ।
मुझको ये भी न था मालूम किधर जाना था ।।

आप हालात से कुछ देर तो लड़ते साहब ।
इतनी जल्दी भी नहीं आपको डर जाना था ।।

सारे शिकवे गिले काफ़ूर हो जाते दिल के ।
चाँद को चुपके से आँगन में उतर जाना था ।।

मुस्कुरा कर जो मेरा हाल वो पूछा मुझसे ।
दर्द मेरा  तो सरे आम उभर जाना था ।।

वक्त के साथ रही होगी सबा की कोशिश ।
हुस्न को बहती हवाओं में निखर जाना था ।।

बाद मुद्दत के जो इक रात मिली थी तुमको।
मुन्तज़िर ख़्वाब थे कुछ देर ठहर जाना ।।

चल दिये छोड़ के तूफ़ां में वो तन्हा मुझको ।
इस तरह मैंने मुसीबत का सफ़र जाना था ।।

याद करते ही कहानी, वो हरा दिखता है ।
वक्त के साथ मेरा ज़ख्म जो भर जाना था ।।

इश्क़ का भूत चढ़ा सर पे उसे क्या कहिये ।
उम्र ढलने पे मियाँ कुछ तो सुधर जाना था ।।

      डॉ0 नवीन मणि त्रिपाठी

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