तीखी कलम से

शुक्रवार, 7 जून 2019

यहाँ तो जुल्म है यारो खुशी से सर उठाना भी

मयस्सर तक नहीँ  परदेश  में जब आबो  दाना भी ।
बहुत मुमकिन परिंदों का है घर पर लौट आना भी ।।

उसूलों  को  जो  बाजारों  में  अक्सर. बेच आते हैं । 
उन्हीं  के  हाथ लगता है .मुक़द्दर का खज़ाना भी ।।

सियासत दां की यारी से बचा ले ऐ खुदा मुझको ।
अजब है दुश्मनी उनकी अजब  है  दोस्ताना भी ।।

हमारी मुफलिसी की हर कहानी  याद है  उसको ।
अभी तक है शज़र वो नीम का घर में पुराना भी ।।

हर इक रिश्ते की है बुनियाद में दौलत की जब ईटें ।
चलो बस हो चुका फिर तो मुहब्बत का निभाना भी ।।

बहुत  लाचार  है  बस्ती  बड़ा  ख़ामोश  है  मंजर ।
सँभल के चल यहां तो वार होगा क़ातिलाना भी ।।

गली से मत निकलिए इस तरह बन ठन के ऐ साहिब ।
न बन जाऊं कहीं मैं हुस्न का इक दिन निशाना भी।। 

तरक्क़ी  कर  के  देखो  पांव  खींचेगा  जमाना ये ।
यहां  तो  जुल्म है यारो खुशी से सर  उठाना. भी ।।

अमीरों से  गरीबी  की यहाँ चर्चा  न  कीजै  अब ।
नई फ़ितरत है उनकी बेबसी पर ज़ुल्म ढाना भी ।।

 मुनासिब  दूरियां  रखना जरा  तुम उन हसीनों से ।
दिलों पर ज़ख़्म कर जाता है जिनका मुस्कुराना भी।।

तुम्हारी शरबती आंखों से छलके जाम जब साकी ।
हमें  तो  याद  है अब तक बहुत पीना पिलाना भी ।।

               मौलिक अप्रकाशित
              डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें