तीखी कलम से

रविवार, 15 मार्च 2020

शराब जब छलक पड़ी तो मयकशी कुबूल है

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शराब जब छलक पड़ी तो मयकशी कुबूल है ।
ऐ रिन्द मैकदे को तेरी तिश्नगी कुबूल है ।

नजर झुकी झुकी सी है हया की है ये इंतिहा ।
लबों पे जुम्बिशें लिए ये बेख़ुदी कुबूल है ।।

गुनाह आंख कर न दे हटा न इस तरह नकाब ।
जवां है धड़कने मेरी ये आशिकी कबूल है ।।

यूँ रात भर निहार के भी फासले  घटे  नहीं ।
ऐ चाँद तेरी बज़्म की ये बेबसी कुबूल है ।।

न रूठ कर यूँ जाइए मेरी यही है इल्तिजा ।
मुझे हुजूऱ अपकी तो बेरुख़ी कुबूल है ।।

ये सुन के मुस्कुरा रहा चराग़ स्याह रात में ।
शलभ ने जब कहा यही ये रोशनी कुबूल है ।।

उसी को ज़ख्म हैं मिले उसी को हर सज़ा मिली ।
जिसे तेरे लिए जहाँ की दुश्मनी कबूल है ।।

बिना रदीफ़ बह्र के लिखी थी मैंने जो कभी ।
मेरे विसाले यार को वो शायरी कुबूल है ।।

ऐ रब जरा बता मुझे कदम कदम की मुश्किलें ।
तेरी ही ज़ुस्तजू  में तेरी रहबरी कुबूल है ।।

        --नवीन मणि त्रिपाठी

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