तीखी कलम से

रविवार, 15 मार्च 2020

आसुओं में ख्वाब बह जाते हैं सब

2122 2122 212

जुल्म  बेबस  पर  यहाँ  ढाते  हैं सब ।
आँसुओं  में  ख़ाब  बह  जाते हैं सब ।।

क्या  ज़माने   लद  गए   कानून   के ।
अब सियासत दां से घबराते हैं सब ।।

अब   नहीं   रहना   है  तेरे  शह्र   में ।
घर मेरा अक्सर  जला  जाते  हैं सब ।।

मत   करो  इंसाफ  की  उम्मीद  तुम ।
रिश्वतें   मिल  बॉट  कर  खाते  हैं सब ।।

क्या   करेगी   ये  अदालत  फैसला ।
जब  गवाही  से  मुकर  जाते हैं सब ।।

है  अजब  आलम  हमारे  मुल्क  का ।
गैर  की दौलत  उठा  लाते  हैं सब ।।

जब  नहीं  है  वस्ता  सच  से  कोई ।
क्यों कसम गीता लिए खाते हैं सब ।।

जात  मजहब  में  बटे  हैं लोग  फिर ।
एकता  के  गीत  क्यूँ   गाते  हैं सब ।।

लुट न  जाए  देश  साज़िश  के तहत ।
नफ़रतें   हर   सिम्त  फैलाते  हैं  सब ।।

उनको   रहने   दे  अभी   पर्दानशीं ।
हुस्न   वाले  यार   शर्माते   हैं  सब।।

देख  तू  हालात  अब  इस  दौर के ।।
जिस्म ख़ातिर इश्क़ फरमाते हैं सब ।।

        --नवीन मणि त्रिपाठी

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