तीखी कलम से

रविवार, 15 मार्च 2020

तेरी छत पे कबूतर आ रहे हैं

1222 1222 122 

जो   बीनाई  में  मंज़र  आ  रहे  हैं ।
नज़र वो बद  से  बदतर आ  रहे हैं ।।

किताबें  हाथ  मे  होनी  थी जिनके ।
उन्हीं  के  हाथ  ख़ंजर आ  रहे  हैं ।।

भरोसा जिसको खुद पर ही नहीं है ।
उसी  के  साथ  रहबर  आ  रहे  हैं ।।

यकीं करना बहुत मुश्किल है उन पे ।
पहन कर जो भी खद्दर आ रहे हैं ।।

जरा  बच  के  रहो   रानाइयों  से ।
सुना है अब सितमगर आ रहे हैं ।।

बनाऊंगा उन्हीं से घर मैं इक दिन ।
मेरे घर तक जो पत्थर आ रहे हैं ।।

किये थे वस्ल पर जो प्रश्न तुमने ।
सनम के ख़त में उत्तर आ रहे हैं ।।

तू कर साहिल पे अब नजरे इनायत ।
जहाँ   तूफ़ां  निरन्तर  आ  रहे  हैं ।।

वही  जख़्मी  हुए  तीरे  नज़र  से ।
जो  तेरी  ज़द में अंदर  आ रहे  हैं ।।

जो दाने  डाले  थे उल्फ़त  के  तूने ।
तेरी  छत  पे  कबूतर  आ  रहे   हैं ।।

तेरी  बस्ती  में   देखो   हुस्न   वाले ।
तेरा  लेकर   मुकद्दर  आ   रहे   हैं ।।

        -- नवीन मणि त्रिपाठी

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