तीखी कलम से

मंगलवार, 22 मार्च 2022

ग़ज़ल

 ग़ज़ल 


221 2121 1221 212 

उनका गुनाह तो किसी  क़ातिल से  कम  नहीं ।

जिनको  हमारी  जान  के जाने का  ग़म  नहीं ।।


हर  सिम्त  उठ  रही  हैं  ये लाशें घरों से क्यूँ ।

शायद   मेरे   दयार  में   बैतुल   हरम   नहीं ।।


कह दूं मैं मीडिया की तरह तुमको अब ख़ुदा ।

इतना  तुम्हारे  काम पे  मुझको  भरम  नहीं ।।


रक्खा था जिनको दिल मे ज़माना सँभाल के ।

वो  तो   जनाब  ठहरे  यहाँ   मोहतरम   नहीं ।।


उजड़े तमाम  घर यहाँ इतनी  सी  बात  पर ।

बस्ती  में जब  मिला उसे बैतुस  सनम नहीं ।।


करते   रहें  वो  याद  ज़माने  तलक   हुजूऱ।

मुफ़लिस के हक़ में आपके ऐसे करम नहीं ।।


इस  दौर में  है जीने  का  अन्दाज़  यूँ अलग ।

बचती  ये जिंदगी  है  मियाँ  बे रकम  नहीं।।


पकड़ा  गया  वही  है  फरेबों  के  दरमियाँ ।

कहता था जो मैं खाता हूं झूठी कसम नहीं ।।


बैतुल हरम= पवित्र स्थान 

बैतुस सनम= प्रेमिका का घर 


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--डॉ नवीन मणि त्रिपाठी   


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