तीखी कलम से

बुधवार, 30 नवंबर 2011

छेड़ी जो ग़ज़ल

छेड़ी जो ग़ज़ल  रात  उसकी  याद  आ गयी |
पलकों में टिप टिपाती सी बरसात आ गयी ||

खुद को छिपा लिया  था  ज़माने इस  कदर |
परदे   हज़ार   फेंक  के   जज्बात  आ  गयी ||

मैंने  सुना  था  जख्म को भरता है वक्त भी |
हर वक्त  से  जख्मों  में नयी जान आ गयी ||

 गैरों   के  क़त्ल   होने  की  चर्चाएँ  आम  हैं |
अपनों के क़त्ल होने  की फरियाद आ गयी ||

उन  कांपते  होठों  ने जो  पूछा था मेरा हाल |
खामोसियाँ    लबों   पे   सरेआम  आ  गयी ||

अश्कों  ने  भिगोया  है  किसी कब्र की चादर |
नम  होती  हवाओं  से  ये  आवाज  आ गयी || 
                                                                       -नवीन

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