तीखी कलम से

शनिवार, 9 नवंबर 2013

"मृग मरीचिका"


 
आखिर क्यों हो जाते हो आशक्त ?
तुम्हारा कौन है ?
आत्मीयता मौन है |
हर और मिथ्या आडम्बर ,
माया का विशाल अम्बर |
पत्नी, बच्चे ,रिश्ते ,नाते ,
सबका अपना अपना स्वार्थ |
जकड़ते हुए बंधन के निहतार्थ |
समझौता बन चुका है ,
जीवन का आधार |
गौर से देखो हर ओर अंधकार |
जहाँ तुमने देखा था
अथाह शांति का जल |
क्या तुम्हें याद है ?
अपनी तपस्या का एक एक पल |
सब कुछ मृगमरीचिका के सिवा क्या निकला ?
नहीं सुलझ सका जीवन का मसला |
आखिरी समय .....
पश्चाताप की अग्नि में झुलस रहे हैं |
सिली हुई जुबान ....
कुछ कह भी नहीं पा रहे हैं |
और अब मृत्यु का वरण तो करना ही है |
तुम्हे फिर नए जीवन की ओर
चलना ही है |
काश तुमने जिंदगी को पहचाना होता !
अपने आप को जाना होता !
इस जीवन मरण के चक्र से बच सकते थे |
महा मोक्ष की राहों पर चल सकते थे |

                                         --  नवीन मणि त्रिपाठी

6 टिप्‍पणियां:

  1. मंगलवार 12/11/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    आप भी एक नज़र देखें
    धन्यवाद .... आभार ....

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  2. यही मृग-मरीचिका है जिसके बारे में सब जानते हैं और फिर भी भागना ही होता है क्योंकि जीवन का शायद यही नियम है. बहुत सुन्दर रचना त्रिपाठी जी.

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  3. अपने आप को जानना ... मोह माया से परे हो जाना ... कृष्ण बन जाना ही तो है ...
    फिर जीवन चक्र हो न हो क्या फर्क ....

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  4. बहुत सुन्दर व प्रभावशाली रचना , नवीन भाई धन्यवाद , * जै श्री हरि: *

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