तीखी कलम से

रविवार, 17 नवंबर 2013

"वो कत्ले आम सुबहो -शाम किया करते हैं "

अदा  ए  जुल्फ  से  अंजाम  दिया करते हैं |
वो कत्ले आम सुबहो -शाम किया करते हैं ||


झुकी  निगाह  उठाई  तो  जल जला  आया |
वो  ज़माने  से  इंतकाम   लिया  करते  हैं ||


कली  गुलाब  की  शरमाई  उनकी रंगत से |
शबाब  ए  हुश्न  का  पैगाम  दिया  करते हैं ||


सुर्ख लब  पर  हैं तबस्सुम के खरीदार बहुत |
वो  मोहब्बत  को भी नीलाम किया करते है ||


मैं तो साहिल था लहर आयी और छू के गयी |
याद  हम  भी  वही  मुकाम  किया  करते  हैं ||


बेवफा  तुझको , मुहब्बत का सलीका ही नहीं |
तमाम  उम्र , ये   इल्जाम   लिया  करते  हैं ||


जब  दबे पांव तू आयी  उसी महुआ के  तले |
उसी शजर  से  तेरा   नाम  लिया   करते  हैं ||

10 टिप्‍पणियां:

  1. वाह....बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल......
    हर शेर बेहतरीन है.....बेहद पसंद आयी मुझे.

    सादर
    अनु

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  2. सुर्ख लब पर हैं तबस्सुम के खरीदार बहुत |
    वो मोहब्बत को भी नीलाम किया करते है..

    बहुत खूब .. लाजवाब शेर हैं सभी इस गज़ल के ...

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  4. शानदार ग़ज़ल त्रिपाठी जी. प्रेम से लबरेज.

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  5. बहुत खूब !खूबसूरत गज़ल। सुन्दर एहसास .

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