तीखी कलम से

शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

रंगीन जश्ने रात मनाता रहा कोई

भूखा    है    नौजवान    जो   रोटी   के    वास्ते |
मिलता   है   लाली   पाप   उसे   लैप   टाप से ||
भत्तों   से   आग   पेट   की   बुझती भला  कहाँ |
ठग  के   गयीं   हैं  उसको  यहाँ  की सियासतें ||

जाड़े   की   सर्द   रात   से   लड़ता   रहा  कोई |
बच्चों   की   मौत   पे  वहाँ   रोता  रहा   कोई ||
नफ़रत का बीज बो के बहुत खुश  मिजाज  हैं |
रंगीन    जश्ने     रात    मनाता    रहा     कोई ||

वो    हौसलों    का   दीप  जलाता   चला   गया |
इमान  चीज   क्या   है , बताता    चला    गया ||
जब  से  जगा  है  देश  का    ये  आम   आदमी |
भ्रष्टों  की   नीद  को   वो   उड़ाता   चला   गया ||

मजहब   के   नाम  पे  किया  उसने   गुनाह  है |
दहशत  के  लिए  भी  यहाँ  उसकी  निगाह   है ||
सरकार निकम्मी हो तो मुश्किल नहीं कुछ भी |
दुश्मन  जो  वतन  के   उन्हें  मिलती पनाह है ||

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही मर्मस्पर्शी.....
    बहुत अच्छी रचना!!

    सादर
    अनु

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  2. जल्दी ही यह नज़ारा बदले. सुन्दर रचना.

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  3. बढ़िया प्रस्तुति-
    आभार आदरणीय-

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  4. जाड़े की सर्द रात से लड़ता रहा कोई |
    बच्चों की मौत पे वहाँ रोता रहा कोई ||
    नफ़रत का बीज बो के बहुत खुश मिजाज हैं |
    रंगीन जश्ने रात मनाता रहा कोई ||
    संवेदनशीलता नहीं रही समाज में और इन तंत्र के ठेकेदारों में तो खास कर के ... लाजवाब लिखा है समाज की विसंगतियों पर ...

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  5. ओज से परिपूर्ण...गंभीर अर्थों को प्रस्तुत करती सार्थक रचना।।।

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  6. शाश्वत सत्य को सहजता से बखान करतीं सुंदर पंक्तियाँ...

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