तीखी कलम से

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

गजल

                         गजल


एक साजिश के तहत मुल्क बटाने निकले ।

फ़ौज के फख्र को मिट्टी में मिलाने निकले ।।

 

रूह  शरमाई  शहीदों  की  उनकी हरकत से ।

जिनकी खातिर हुए फना वो बेगाने निकले ।।

 

मजहबी  आग  लगा  दी  है  बड़ी  जुर्रत से ।

ये बदगुमान अमन को ही मिटाने निकले ।।

 

 अकल बख्से खुदा भी ऐसे  काली दासों की ।

घोसला जिस पे था वो शाख कटाने निकले ।।

 

फसल  उगाई  नफरतों  की  बेहतरीन यहाँ ।

अपनी  कुर्सी के  लिए  देश जलाने निकले ।।

 

जब  से  इंशानियत झुलसी है उनके दंगों से ।

घर से मुजरे  के  लिए  खूब  खजाने निकले ।।

 

इस ज़माने में शुकूं परस्त बनके  देख जरा ।

कत्ल  होते  हैं  जो  तहजीब बचाने निकले ।।

 

6 टिप्‍पणियां:

  1. बढिया ग़ज़ल....
    अर्थपूर्ण शेर कहे हैं !!

    अनु

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  2. सामयिक उम्दा गजल
    काश ये देश का दुर्भाग्य ना होता

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  3. मजहबी आग लगा दी है बड़ी जुर्रत से ।
    ये बदगुमान अमन को ही मिटाने निकले ।।......बहुत बढिया गजल..

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  4. वाह... उम्दा रचना, खूबसूरत शेर...बहुत बहुत बधाई...
    नयी पोस्ट@भूली हुई यादों

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  5. मजहबी आग लगा दी है बड़ी जुर्रत से ।
    ये बदगुमान अमन को ही मिटाने निकले ..
    गहराई लिए हर शेर ... सटीक ... ऐसे लोगों से देश को बचाना होगा ...

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  6. उम्दा रचना, खूबसूरत शेर

    Recent Post शब्दों की मुस्कराहट पर ….अब आंगन में फुदकती गौरैया नजर नहीं आती

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