गजल
एक साजिश के तहत मुल्क बटाने निकले ।
फ़ौज के फख्र को मिट्टी में मिलाने निकले ।।
रूह शरमाई शहीदों की उनकी हरकत से ।
जिनकी खातिर हुए फना वो बेगाने निकले ।।
मजहबी आग लगा दी है बड़ी जुर्रत से ।
ये बदगुमान अमन को ही मिटाने निकले ।।
अकल बख्से खुदा भी ऐसे काली दासों की ।
घोसला जिस पे था वो शाख कटाने निकले ।।
फसल उगाई नफरतों की बेहतरीन यहाँ ।
अपनी कुर्सी के लिए देश जलाने निकले ।।
जब से इंशानियत झुलसी है उनके दंगों से ।
घर से मुजरे के लिए खूब खजाने निकले ।।
इस ज़माने में शुकूं परस्त बनके देख जरा ।
कत्ल होते हैं जो तहजीब बचाने निकले ।।
बढिया ग़ज़ल....
जवाब देंहटाएंअर्थपूर्ण शेर कहे हैं !!
अनु
सामयिक उम्दा गजल
जवाब देंहटाएंकाश ये देश का दुर्भाग्य ना होता
मजहबी आग लगा दी है बड़ी जुर्रत से ।
जवाब देंहटाएंये बदगुमान अमन को ही मिटाने निकले ।।......बहुत बढिया गजल..
वाह... उम्दा रचना, खूबसूरत शेर...बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@भूली हुई यादों
मजहबी आग लगा दी है बड़ी जुर्रत से ।
जवाब देंहटाएंये बदगुमान अमन को ही मिटाने निकले ..
गहराई लिए हर शेर ... सटीक ... ऐसे लोगों से देश को बचाना होगा ...
उम्दा रचना, खूबसूरत शेर
जवाब देंहटाएंRecent Post शब्दों की मुस्कराहट पर ….अब आंगन में फुदकती गौरैया नजर नहीं आती