तीखी कलम से

मंगलवार, 8 जुलाई 2014

ऐ खुदा कातिल तेरी मजहब परस्ती हो गयी है

                 गजल (इराक त्रासदी)

जिन्दगी  महँगी  यहाँ  पर  मौत  सस्ती   हो   गयी   है ।
जल   रही  इंसानियत  बदनाम   बस्ती  हो   गयी  है ।।

ये नबाबों  का  शहर भी  लाश  का  इक  ढेर है  अब ।
मिट  रहा   है  ये चमन  बरबाद  हस्ती  हो   गयी  है ।।

खुश  हैं   सौदागर   बहुत  शातिर   इरादों  को  लिए ।
असलहो  को  बेच  कर उनकी भी  मस्ती हो गयी है ।।

खून   की  नदियाँ   बहाना  बन   चुका   तहजीब  है ।
इस रियासत की  यहाँ  हालत भी  खस्ती  हो गयी है ।।

छिप  रहे   मासूम  अपनी  माँ  के  आँचल  में   यहाँ ।
शायद दहशतगर्द  की  गलियों  में  गश्ती  हो गयी है ।।

हर  तरफ   खामोसियाँ  हैं   मौत   की  आहट   बहुत ।
हर जुबाँ  के  लफ्ज   पर  बे  वक्त  शख्ती हो  गयी है ।।

डूबना    मुमकिन   बहुत   है  जंग   की    मजधार  में।
देख  जरजर   ये   पुरानी   तेरी   कश्ती  हो  गयी  है ।।

अब    तुझे    सिजदा   करे   कैसे    यहाँ    इंसानियत ।
ऐ  खुदा   कातिल   तेरी  मजहब परस्ती  हो  गयी है ।।

 .................नवीन..................

14 टिप्‍पणियां:

  1. खुश हैं सौदागर बहुत शातिर इरादों को लिए ।
    असलहो को बेच कर उनकी भी मस्ती हो गयी है ।।
    बेहद गहनता से सशक्‍त भावों को शब्‍द दिये हैं आपने ......बेहतरीन प्रस्‍तुति

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  2. खुश हैं सौदागर बहुत शातिर इरादों को लिए ।
    असलहो को बेच कर उनकी भी मस्ती हो गयी है ..
    लाजवाब ... आज के माहोल को लिखा है बाखूबी इन शेरों में ...

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  3. अब तुझे सिजदा करे कैसे यहाँ इंसानियत ।
    ऐ खुदा कातिल तेरी मजहब परस्ती हो गयी है ।।
    ...वाह...बहुत सटीक और सशक्त अभिव्यक्ति...

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  4. क्या खूब फ़रमाया आपने ............बहुत बढ़िया!

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