तीखी कलम से

शनिवार, 28 जून 2014

खिड़की खुली रखोगे तो आएँगी बहारें

गजल


मुद्दत   के   बाद   चाँद   दिखा    छत पे तुम्हारे ।
दीदार    ए   जश्न    ईद    हुई    दिल  में  हमारे ।।

इस जुस्तजूँ  का  ख्वाब  सजोता  रहा फ़कीर।
ढूढेंगे   हम  भी   दिन   में   आसमान में  तारे ।।

बरसात  के  मौसम   की  हवाओं  का है असर।
बदले    हुए    मिजाज    हैं   बदले    से  नज़ारे ।।

कमजर्फ   ज़माने   में    गजल   हो  ना बेअसर।
अंग्रेजियत   में   ढल   रहे    हैं   रोज   कुवाँरे ।।


नफ़रत  की  बात  कर ना नसीहत की बात कर ।
खिड़की    खुली   रखोगे    तो   आएँगी बहारें ।।

बादल    बरस    के   जायेंगे  , उम्मीद  बेपनाह ।
तपती   जमीं   की   प्यास    तो   बेसब्र निहारे ।।

हलचल   हुई   है   तेज , हैं  मदहोश सी   लहरें ।
शायद   भिगो  के   जायेंगी   वो  जलते किनारे।।

           नवीन

8 टिप्‍पणियां:

  1. नफ़रत की बात कर ना नसीहत की बात कर ।
    खिड़की खुली रखोगे तो आएँगी बहारें ।।

    बहुत ही बढिया ....

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन हुनर की कीमत - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (29-06-2014) को ''अभिव्यक्ति आप की'' ''बातें मेरे मन की'' (चर्चा मंच 1659) पर भी होगी!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  4. खिड़की का खुला रहना जरुरी है ताज़ी हवाओं के लिए !
    अच्छी ग़ज़ल !

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  5. नफ़रत की बात कर ना नसीहत की बात कर ।
    खिड़की खुली रखोगे तो आएँगी बहारें ।।
    ...वाह...बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...

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  6. बहुत ही उम्दा ग़ज़ल ... हर शेर लाजवाब ..

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  7. प्यारा गजल ......................हलचल हुई है तेज , हैं मदहोश सी लहरें ।
    शायद भिगो के जायेंगी वो जलते किनारे।।अच्छा लगा।

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