तीखी कलम से

रविवार, 12 अक्टूबर 2014

"लिख के जले हैं खत बहुत तेरे जबाब में "

-----------------**गज़ल**-----------------

मिटने    लगी   हैं   हस्तियाँ ,तेरे   गुलाब    में ।
मुझको  दिखा  है ईश्क भी ,अपने  रुआब  में।।

पीने की  बात  कर  ना  पिलाने  की  बातकर।
डूबा  है  बार  -बार   वो  हुश्न   ए  शराब  में ।।

जिनको  यकीं  है अपने  तजुर्बे  पे आज  भी।
ढूँढा  है   कोहिनूर  वही  दिन  के  ख्वाब  में ।।

उड़ती  सी   रंगतें   ये  असर   का   सबूत  हैं ।
छिपता  कहाँ  ये  ईश्क  किसी  के हिजाब में।।

ढूँढा    तमाम   उम्र    नूर   अहले   चमन   में ।
दिखने   लगा   है   चाँद    तुम्हारे  नकाब   में।।

निकले थे  लफ्ज  दिल से जुबाँ पे  हुए कतल ।
लिख  के  जले हैं  खत  बहुत  तेरे  जबाब में ।।

बदली  हुई   सी  कलियाँ  बदले  हुए  से  भौरे।
जब  भी  बहारें  आयी  थीं  अपने  शबाब  में।।

तक़रीर  जन्नतों  की ,सुनाने  से  क्या  मिला ।
बदली  नियत  कहाँ  है ,खाना ए  ख़राब  में ।। 

उम्मीद की थी जिस पे ,मुशीबत में होंगे साथ ।
अक्सर  दिखे  वो ,हड्डियाँ बन के कबाब  में ।।

                                   --  नवीन

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