तीखी कलम से

सोमवार, 29 जून 2015

इन आसुओं के छलकने का न बन

ग़ज़ल

मेरे महबूब  तू   जख्मो  का तलबगार  ना  बन ।
इन आसुओं के छलकने का गुनहगार ना बन ।।

था   इन्तजार  मुझे   तेरी  उन   दुआओं  का ।
मेरे  जमीर के  हिस्से  का  खरीदार  ना  बन ।।

लूट  गया   मैं   हूँ   तेरे  हुश्न  के   मैखाने  में ।
मेरे  साकी  मेरे  नीलाम का अखबार ना बन।।

शहर  ए   दीवार  नाम   चस्पा  बेवफाई  का।
मेरी  हस्ती  को मिटाने का इस्तिहार ना बन ।।

मैं  खिजाओं  के  लिए  जिंदगी को लाया था ।
इस  मुकद्दर  के सवरने  का  तू बहार ना बन ।।

मेरी    तन्हाइयों   को    मेरे   पास  रहने   दो ।
फिर उम्मीदों के लिए दिल का बेक़रार न बन  ।।

गुनाह    कर    गयी   कबूल    खामोशी   तेरी ।
सब गवाहों  के बदलने  का  तू सरकार ना बन ।।

मेरे खतों  से  पढ़ गयी  वो  मेरे  घर  का  पता ।
मेरे  रकीब  मइयतों   का   मदतगार  ना  बन ।।
                
                 नवीन मणि त्रिपाठी

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