तीखी कलम से

मंगलवार, 8 सितंबर 2015

इश्क बिकने वहीँ जाता


उम्र के दायरे  से अब  मुहब्बत  का  नहीं नाता।
जहाँ  जेबों में गर्मी हो इश्क बिकने वहीँ जाता ।।

जमाने  का  यहाँ बिगड़ा  हुआ दस्तूर  है या रब ।
सेठ  बाजार  की  कीमत  बढ़ाने  है  वहीँ आता।।

कब्र में पाँव हैं  जिनके  वो दौलत  के फरिस्ते  हैं ।
मिजाजे आशिकी के फख्र का मंजर नहीं जाता ।।
सियासत दां कोई तालीम अब मत दे ज़माने को ।
जिन्हें अपने मुकद्दर में शरम लिखना नहीं आता ।।

तेरी बिकने की फितरत थी बिकी है हसरते तेरी।
मुहब्बत नाम से  जारी  तेरा  फतबा नहीं भाता।।

यहां  कानून  के  रंग में  हूर  की  कीमते खासी ।
इश्क का दर्ज क्या खर्चा जरा देखो बही खाता ।।
           नवीन मणि त्रिपाठी 

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बृहस्पतिवार (10-09-2015) को "हारे को हरिनाम" (चर्चा अंक-2094) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. जिधर देखता हूँ उधर तू मिला है
    बेह्तरीन अभिव्यक्ति

    ये रंगीनियों का गज़ब सिलसिला है
    नाज क्यों ना मुझे अपने जीवन पर हो
    तुमसे रब को पाने लगा आजकल हूँ

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