तीखी कलम से

मंगलवार, 27 अक्टूबर 2015

गर्दिशे मंजर के आलम में नहीं आती सहर


ग़ज़ल 

जल  रही शब्  मुद्दतों से  यूँ ही  ढल जाती  उमर ।
गर्दिशे  मंजर   के  आलम  में  नहीं आती  सहर ।। 

बे  अदब   जब  आशनाई   हो  चुकी  दीदार  हो ।
स्याह  सी  तन्हाइयो   में  उम्र   हो  जाती  बसर ।।

खैरियत की गुफ्तगूं  जब कर्  गए आलिम यहां ।
बद  जुबानी हरकते भी  मुफ़लिसी  लाती शहर ।।

फिर  हुई  तस्दीक़  उसके  जुर्म  की  हर  इम्तहाँ।
जुल्म की हर दास्ताँ  बेख़ौफ़  कह  जाती नज़र ।।

बदसलूकी  रिन्द  ने कर  दी  यहां  साकी  से है ।
अब हरम से  मयकदे तक भी नहीं जाती डगर।।

ये  तपिस  तो  तिश्नगी  की  शक्ल  में आबाद  है।
वास्ते  साया  ये जुल्फे  बन  के हैं आती  शज़र ।।

सुर्ख रुँ  होती   गयी  वो  भी  हया  के  दरमियाँ ।
बेखुदी  में  आरजू  क्यों  ढूढ़  कर  लाती  ज़हर ।।

फ़िक्रपन की  जुस्तजूं  ही जिंदगी  का  फ़लसफ़ा।
ख्वाहिशे अंजाम तक भी  कर नहीं पाती सफ़र ।।

       - नवीन मणि त्रिपाठी

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