तीखी कलम से

रविवार, 8 नवंबर 2015

चल नकाबों में ज़माने की नज़र पाक नहीं


----***ग़ज़ल***-----

चल  नकाबो  में  जमाने  की नज़र  पाक  नहीं ।
कीमती  हुश्न  ये  हो  जाए  कही  ख़ाक  नहीं ।।

अजनबी  बनके  गली  से  यूँ  गुजरना उसका ।
दिल जलाने की थी साजिश ये इत्तिफ़ाक नहीं ।। 

ताल्लुक  वक्त  के   साये  में   बदलते  अक्सर ।
फितरते  इश्क  में जिन्दा  कोई  इख़लाक़ नहीं ।।

रियासत   डूब   न   जाए    लहू   परस्ती   में ।
है  ढलानों   पे  आफताब ,यह  मजाक  नहीं ।।

मुन्तजिर   हो  के  हैं गुजरी  तमाम  रात यहां ।
मेरी  उम्मीद का  दामन  अभी  हलाक  नहीँ ।।

नाम  लिखती  रही   वो  रेत  पर  तन्हाई  में ।
लोग  कहते  हैं  जिसे  वो  तेरे  फिराक  नहीं।।

वो  रकीबों  के  मुहब्बत  पे  बे  हिचक  बोली ।
ये  तो  रुसवाई  थी  मेरा  कोई  तलाक  नहीं ।।

पसलियां गिन  के आबरू  न मिटा तू उसकी ।
मुद्दतों  से  उसे   मिलती  कोई  खुराक   नहीं ।।

            -नवीन मणि त्रिपाठी

फ़ना के बाद भी मेरा पता लेकर गया कोई


-----ग़ज़ल ------

फना   के   बाद  भी  मेरा  पता  लेकर  गया  कोई ।
कब्र  पे आशिक़ी का कुछ  सिला  देकर गया कोई ।।

हरे  है जख्म  वो  सारे वो यादेँ भी जवां अब तक ।
दर्द   की   बेसुमारी   पर  यहाँ  रोकर  गया  कोई ।।

जूनूने ख्वाब था या फिर हकीकत थी खुदा जाने ।
गुलशन ए इश्क के दर से  दफा होकर गया कोई ।।

आसमा  की  बुलंदी से  हसरतों  ने  कहा  हमसे ।
ज़मी  पर आ रही  हूँ  मैं लगा ठोकर  गया  कोई ।।

हरम की किस्मतों में इश्क लिक्खा ही नहीं जाता।
आरजू  ने  जो घर माँगा  वहां  सोकर गया कोई ।।

हमारे  अंजुमन  की  दास्ताँ   न  पूछ  ऐ   हमदम ।
यहाँ मतलब  परस्ती में  वफ़ा खोकर गया  कोई ।।
      
          - नवीन मणि त्रिपाठी