तीखी कलम से

सोमवार, 28 दिसंबर 2015

तो बागी हूँ मैं अपनी जीत की तलवार लिखता हूँ


कातिलों  के  चमन  की  हर  दरो  दीवार  लिखता हूँ ।
यहाँ  नफ़रत  के  साये  में वतन  से प्यार लिखता  हूँ ।।

तू मुल्के  मुख़बिरी अय्याशियों  के  नाम  कर  डाला ।
जो  डायन  कह गया  माँ  को  उसे गद्दार लिखता हूँ।।

हों  पैरोकार  दहशतगर्द  के  जब  भी  सियासत  में ।
मिटाकर  हस्तियां  उनकी नई  सरकार लिखता  हूँ ।।

उखड़ती  ईट  सड़को  पर  तरक्की  देख ली  सबने ।
तेरे जुमलों शिगूफों  का  बड़ा  व्यापार  लिखता  हूँ ।।

गले जब तुम मिले उस से तो शक बदला  यकीनों  में ।
भ्रष्टता  का   नहीं  तुझको  मै  पहरेदार   लिखता  हूँ ।।

जलाकर  राख  करते जो अमन  का हौसला अक्सर ।
कलम  से  मैं  उन्हीं  के  वास्ते  अंगार  लिखता  हूँ ।।

किसी जन्नत की  माफिक  सैफई  में जगमगाहट  है।
अंधेरों  से  तड़पते  गाँव  का  अधिकार  लिखता हूँ ।।

रोटियां  छीन  ली तुमने  जेहन  दारों  की   थाली  से ।
गुनाहे   सिलसिला  तेरा  यहाँ  सौ  बार  लिखता  हूँ ।।

बगावत  है यहाँ  गर सच  को लिख देना किताबों में ।
तो बागी हूँ  मैं  अपने  जीत की तलवार  लिखता हूँ ।।

         - नवीन मणि त्रिपाठी

पगली कुछ पहचान तो रख


थोड़ी  अपनी  शान  तो  रख ।
पगली कुछ पहचान तो रख ।।

सौदागर  सब   लूट  रहे   हैं ।
तू  अपनी  दूकान  तो  रख ।।

जेल  से   छूटा  वही  दरिंदा।
संसद का  सम्मान  तो रख ।।

फिर छापों पर बहस हो गयी।
बदला  सा  ईमान  तो  रख ।।

जंग  खेल   के  मैदानों  पर ।
उसका थोडा  मान तो रख ।।

हुई अदालत  में  हाजिर  वो ।
इसका भी गुणगान तो रख ।।

नज़र  जमाने की है तुझपर ।
मिर्च  और लोबान तो  रख ।।

हक    चरने   आएगा    नेता ।
ऊंचा  एक  मचान  तो  रख ।।

तरकस में  कुछ तीर  बचे हैं ।
हाथ  नया  संधान  तो  रख ।।

कायर  कहकर  भाग  रहा  है ।
अपनी  सही  जबान  तो रख ।।

 महगाई   से  कौन  बचा  है ।।
 चेहरे  पर  मुस्कान  तो रख ।।

खुदा  कहाँ  खोया है तुझसे  ।
गीता  और  कुरान  तो  रख ।।

          - नवीन मणि त्रिपाठी

बिक रही बाजार अस्मत आजकल


इस   कदर  रूठी   है  किस्मत  आजकल।
बे  वजह  लगती   है  तोहमत  आजकल।।

जिसने   तोडा   मुल्क   का  हर  हौसला ।
बन  रही  उसकी  भी  तुरबत  आजकल।।

चन्द   लम्हों    की    लगी   हैं   बोलियाँ ।
अब  कहाँ मिलती है मोहलत आजकल।।

ढूंढ   मत   इन्साफ   की   उम्मीद  अब ।
हर तरफ जहमत ही जहमत आजकल ।।

मत   कहो   मजबूरियों  को  शौक  तुम ।
बिक  रही   बाज़ार  अस्मत  आजकल ।।

लुट  गयी   जागीर   उस   अय्यास  की ।
वह मिटा  है उसकी  निस्बत आजकल ।।

गैर   मुमकिन   है   सराफत   हो    बची ।
हो   गयी  मशहूर   सोहबत   आजकल ।।

वास्ता  जिसका   खुदा   से  कुछ  न था ।
फिर  वहीँ  बरसी  है  रहमत  आजकल ।।

      --नवीन मणि त्रिपाठी

रविवार, 27 दिसंबर 2015

निर्मम

    *** निर्मम***
            -नवीन मणि त्रिपाठी 

      दिसंबर का आखिरी सप्ताह ......बरसात के बाद हवाओं के रुख में परिवर्तन से ठण्ढक के साथ घना कुहरा समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा था । हलकी हलकी पछुआ हवाओं की सरसराहट ........... पाले की फुहार के साथ सीना चीरती हुई  बर्फीली ठंठक एक आम आदमी का होश फाख्ता करने के लिए काफी थी । पिछले पन्द्रह दिनों से सूर्य देव के दर्शन नहीं हुए थे । छोटी छोटी चिड़ियाँ भी पेट की लाचारी 
की वजह सी निकल तो आती परंतु  फुदकने के हौसले बुरी तरह पस्त नज़र आ रहे थे । कुहरे में का अजीबो गरीब मंजर पूरा दिन 
टप.........टप      ......टपकटी शीत की बूंदे......शहर का तापमान एक दो डिग्री के आसपास ठहरा हुआ .......। अखबारों में मवेशियों और इंसानो की मौत की ख़बरें  आम बनती जा रही थी । कम्बल रजाई सब के सब बे असरदार हो गए , ज्यादा तर घरों में अलाव जलने लगे ।  सरकारी इन्तजाम में चौराहे पर अलाव जलने लगे । सर्दी का आलम बेइंतहां कहर बरपा कर रहा था  ।


     शाम सवा पांच बज चुके थे । मैं अपने सहकर्मी विनोद के साथ गेट पर रुक कर ड्यूटी समाप्ति की घोषणा करने वाले सायरन की प्रतीक्षा कर रहा था । विनोद के पैरों  में चोट थी इसलिए वह मेरी ही बाइक से आजकल आता जाता था । फैक्ट्री का सायरन बजते ही ड्यूटी समाप्त हो गयी । तीन किलो मीटर दूर अपनी कालोनी के लिए नेशनल हाई वे पर बाइक से चल रहे थे तभी रोड पर एक बुड्ढे को सड़क पार करते हुए देखा । बुड्ढा चार पांच कदम चलने के बाद लड़खड़ा कर  सड़क पर गिर गया । तब तक मेरी गाड़ी उसके करीब पहुच गयी । मैंने देखा उसके बदन पर फटा पुराना कुर्ता  मैली सी मारकीन की धोती एक ओबर साइज अध् फटा स्वेटर पैरों में दम तोड़ता सा एक हवाई चप्पल । उम्र यही कोई पचहत्तर से अस्सी के बीच । काफी कमजोर काया । मैंने गाड़ी रोक दी ।

    क्या हो गया बाबा जी ??? जल्दी उठिए नहीं तो गाड़िया आपको रौंद डालेंगी । 
    मैंने बाबा से कहा । 
बाबा ने थोड़ी कोसिस की और फिर खड़े हो गए । करीब दो तीन कदम ही चले होंगे और फिर लड़खड़ा कर गिर पड़े । तभी तेजी से  सामने  की ओर से आती हुई कार ने ब्रेक लगाया ।उसके ब्रेक लगाने से बाबा की जान तो बाच गयी अंदर से ड्राइवर की आवाज आयी " अरे बाबा मारना ही है तो किसी और गाड़ी से मरो । मैंने क्या बिगाड़ा है बाबा । इतना कहते कहते ड्राइवर ने गाड़ी बैक किया और साइड से होकर निकल गया ।बाबा वहीँ पड़े के पड़े । 
मुझे लगा बाबा को शायद अब मेरी मदद की जरूरत है । लगती है उन्हें कोई दिक्कत आ गयी है । 
अगर इनकी मदत नहीं की तो इसी अंधेरे में कुछ सेकेण्ड में अभी दूसरी कोई गाड़ी आएगी और बुड्ढे को रौंद कर चली जायेगी ।
    मैंने तुरंत बाबा की सुरक्षा के लिए रोड पर ही अपनी बाइक 
आड़ी तिरछी खड़ी कर दी । बाबा को रोड से उठा कर  मैं और विनोद दोनों मिलकर किनारे ले आए । फिर गाड़ी भी किनारे ले आये ।

     बूढ़े बाबा बार बार कुछ बताने का प्रयास कर रहे थे परंतु अस्पष्ट शब्द थे कुछ समझ पाना मुश्किल था । 


 मैंने इनसे पूछा " बाबा कहाँ तक जाना है आपको ? मैं आपको आपके घर छोड़ दूंगा ।"

 "बेइया " बाबा ने कहा था ।
क्या कहा बाबा बेइया ?? मैंने दोबारा स्पष्ट कराना चाहा बाबा ने अस्वीकृत में सर हिला दिया । 
बाबा ने फिर कहा बे ई या .....बे ई या.. 
क्या बेरिया .......???
बेड़िया......?? या बेलिया ???
बाबा सभी शब्दों को अस्वीकृत करते गए और वही बेइया की रट लगाये रखे ।
   अंत मुझे लगा शायद इनकी दिमागी हालत भी ठीक नहीं है ।

   मैंने उनकी हालत देख कर अपने घर चलने का आग्रह किया लेकिन बाबा तौयार नहीं हुए और एक बार फिर उठ कर खड़े हो गए और चलने लगे । बस चार कदम ही चले होंगे और बाबा फिर गिर पड़े । इस बार चोट भी ज्यादा लग गयी । बाबा को उठाया उन्हें चोट से थोडा चक्कर भी  आ गया था । 

बाबा को होश आने पर कलम कागज दिया गया शायद कुछ लिख सकें बाबा परंतु बाबा कुछ पढ़े लिखे नहीं थे । । बुड्ढे बाबा के घुटनों में बार बार गिरने से घाव हो गया था । मैने  विनोद की तरफ देखा और पूछ ही लिया -
" विनोद भाई क्या किया जाए इनका ? लगता है किसी बड़ी बीमारी की वजह से पीड़ित हैं । "
"नहीं भाई यह घर पर ले चलने लायक नहीं है । कही कुछ हो गया  तो और तबाही । ऐसा करते हैं इसे क्यों न थाना तक पंहुचा दिया जाए । थाने वाले जरूर बाबा को घर तक पंहुचा देंगे ।"

   विनोद की बात में दम था । बर्फीली ठण्ढक के प्रकोप से बाबा की जान जाने की सम्भावना थी ।

विनोद ने एक नज़र घड़ी देखी 
और फिर अचानक कुछ शब्द निकल पड़े .........,,,,,,,,"।

विनोद ने कहा 

देखिये इस रास्ते पर इतने सारे लोग गुजर गए किसी ने बाबा की कोई खोज खबर नहीं ली लोग इन्हें छोड़ कर आगे बढ़ते रहे । आप क्यों रुके हैं ? इनको अब इनके हाल पर छोडो और आगे बढ़ो । यह सब फालतू का कार्य है । आपने इनकी जान बचा दी अब आप की ड्यूटी समाप्त हो गयी । बहुत मिलेंगे 
दाता धर्मी  ।" 
विनोद की बात जरूरत से ज्यादा प्रैक्टिकल लगने पर मैंने टोक दिया ।

"अरे भाई विनोद जी इतनी पढाई लिखाई की इतनी सारी नैतिक

 शिक्षा की किताबे पढ़ी ..... कर्तव्यों को निभाने का वक्त आया तो भाग जाएँ ??? यह उचित तो नहीं यार ।
चलो इसे किसी सुरक्षित स्थान पर 
कर दिया जाये जहाँ से इनकी पहचान हो सके और अपने घर यह पहुँच जाएँ ।
    चलो अब बहुत हो गया लाओ बाबा को गाड़ी पर बैठाओ ले चलते हैं इन्हें थाने पर ही छोड़ते हैं । 

   थोड़ी देर बाद हम थाना पर पहुच गए । इंचार्ज महोदय गस्त पर थे । ऑफिस में दीवान जी को बाबा की पूरी कहानी बताई । दीवान जी ने बाबा को ओढ़ने बिछाने का कम्बल दिया । बाबा से थोड़ी पूछ ताछ की कोशिस कर  यथास्थिति से अवगत हो गए । मैंने  अपना नाम पता नोट कराया और सीधे घर आ गया  ।


     बाबा को सुरक्षित स्थान पर छोड़ आने से मेरे मन को बहुत शांति मिल रही थी । जीवन में पहली बार 

किसी असहाय की सेवा करके मन 
गर्वान्वित महसूस कर रहा था ।

      घर पर देर में आया था । पत्नी का मूड आफ था पहुचते ही पहले सवाल की फायरिग हो गई 

" कहाँ थे अभी तक?? "
घर पर क्या है क्या नहीं कुछ 
खबर भी है आपको ? 
   अभी तक दूध और सब्जी नहीं आया और आप को पिकनिक 
करने से फुरसत ही कहाँ और..........
पत्नी की बातें काटते हुए मैंने कहा । प्लीज शांत हो जाओ देवी । पहले बात को समझ तो लो फिर पूरी बात कहना । 
  बुरी तरह फंस गया था । आज एक बुड्ढे की जान बचा के आया हूँ । अगर मैं नहीं होता तो रोड पर मर जाता ......और तुम मिजाज ही 
गर्म किये जा रही हो । 
सारी कहानी सुनने के बाद पत्नी 
धीरे धीरे सामान्य हो गई । रात्रि भोजन के उपरांत कब नींद लगी पता ही नहीं चला ।


    काफी रात में दरवाजा खट खटाने की आवाज आयी । घडी में रात एक बजे थे । मैंने दरवाजा खोला तो देखा बाहर

 एक पुलिस वाला खड़ा था । 
मुझे देखते ही बोला "क्या त्रिपाठी जी आप ही हैं जो शाम को थाने पर गए थे ?"
   "जी हाँ भाई मैं ही हूँ । कहिये इतनी रात में कैसे परेशान हो गए ।"
    "दरोगा जी गस्त से आ गए हैं आपको अभी तुरंत बुलाये हैं । चलिए आप ।" पुलिस वाले की बातों 
में हल्का रौब मुझे साफ नज़र आ गया था । 
"बस दो मिनट रुकिए कपडे चेज 
करके चल रहा हूँ ।" मैंने उस से विनम्रता पूर्वक कहा ।

   मैंने बाइक स्टार्ट किया । मन में एक अजीब से बेचैनी । मोहल्ले के 

लोगों ने थोड़ी पुलिस को देख के थोड़ी ताक़ झांक की थी । लोग अपने मन में जाने क्या क्या कयास 
लगा रहे होंगे । दरोगा आखिर मुझे 
सुबह भी तो बुला सकता था रात में क्यों बुलाया । सुना है यह दरोगा पब्लिक से बहुत पैसे कमा रहा ।
इस प्रकार तरह तरह के विचार मेरे मन में आ और जा रहे थे । बस अब थाना पहुच गए और थानेदार  महोदय की आफिस में पंहुचा तो पता चला साहब अभी अभी गस्त से लौटे हैं इस वक्त हवालात में दो लड़को की पिटाई कर  रहे है । सिपाही ने कहा यही बैठो यहीं मिलेगे ।
   हवालात से दरोगा जी के डंडो की आवाज और रह रह कर तेज जोरदार गालिया और चिल्लाने और कराहने की आवाजे तेज हो जाती थी ।जोर दार गालियां ......तड़ाक ,...........चटाक  फिर भयावह रूदन ....
मुझे तो ऐसा लग रहा था जैसे मैं भी कोई अपराधी हूँ बस अगला नम्बर मेरा ही है । इतना क्रूरतम कार्य करने के बाद उसकी मनः 
स्थिति सामान्य होने की कल्पना करना मेरे बूते की बाहर की बात थी । यह सब सोच ही रहा था कि दरोगा जी कमरे में पहुच गए ।

दरोगा जी ने देख के घूरा उसके बाद बोल पड़े 


''तो आप हैं मिस्टर त्रिपाठी !''

पता है तुम्हे मिस्टर ? ......जिस 
आदमी को तुम यहां छोड़ गए हो उसे मिर्गी की तरह दौरा आया था । लग रहा था बचेगा ही नहीं । और अब तेज बुखार से काँप रहा है ।

      त्रिपाठी जी आप तो बड़े दयालू बड़े धर्मात्मा लगते हो जी । रोड चलते दीन दुखियों पर उपकार किया करते हो जनाब । 

जितने कूड़े रोड पर मिलते हैं सब 
थाने भेज कर धर्मात्मा बन जाते हो । मुझे भी तुम्हारे जैसे लोगों की ही तलास है । सैकड़ो धाराएं हमारे हाथ में हैं उनमे से कुछ धाराएं ऐसे लोगों के लिए हैं जो थाने की नीद मुफ़्त में हराम करते हैं ।

     मैं इनकी सेवा के लिए नहीं बना हूँ । अगर यही सब करते रहे तो हो चुकी थानेदारी ।


    अगर यह बुड्ढ़ा मर मुरा जाता तो ये साले अखबार वाले सबसे पहले पुलिस वालो को हेडलाइन बना देते हैं । लेना एक न देना दो ।.......और फिर इस थाने ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो ये बला यहां छोड़ गए । कोई धर्मशाला समझ रखा है क्या । त्रिपाठी जी 

मैं इसी केस में आप के ऊपर ऐसी धारा में चालान कर दूंगा कि 6 महीने तक जमानत नहीं होगी ।समझ में आयी बात ......"

     दरोगा जी ने बड़े रौब से अपनी बात कहते जा रहे थे और मेरे पास सुन लेने के अलावा और विकल्प ही क्या था ।

जी सर 
यस सर 
कहते कहते जुबान घिस रही थी । शराब के नसे में चूर दरोगा मेरी जरा सी नादानी से किसी भी स्तर को पार कर सकता था । आरगूमेंट करने का मतलब साफ़ था आ बैल मुझे मार ।

     एक लम्बा चौड़ा व्याख्यान सुनाने के बाद दरोगा जी ने कहा -

"ऐसा करो इस बुड्ढे को अस्पताल ले जाकर लावारिस में भर्ती करा दो । मैं अपना एक सिपाही तुम्हारे साथ भेज देता हूँ ।"

"जी सर आप भाई साहब को मेरे साथ भेज दीजिये मैं इन्हें अस्पताल में भर्ती करा दूंगा । "

      
      मैंने तुरंत सहयोगात्मक रवैया अपनाया ।

दरोगा जी ने कहा बुड्ढे को सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर भर्ती करा देना । अगर कोई दिक्कत हो तो मेडिकल कालेज लेकर चले जाना ।

     जी सर कहकर मैंने तुरंत बाबा को गाड़ी पर बैठाया और उसी बाइक पर पीछे सिपाही भी  बैठ गया । थाना से पांच किलो मीटर दूर स्वास्थ्य केंद्र की ओर रात सवा दो बजे भयंकर शीतलहर में गाड़ी चलाना किसी चुनौती से कम नहीं था लेकिन थाने के इस विषाक्त 
माहौल से तो बेहतर ही था ।

   करीब दो किलोमीटर दूर गाड़ी चली होगी तभी पीछे बैठे सिपाही को कुछ गीला और भीगने जैसा आभास हुआ । गाड़ी रोकने के लिए पीछे बैठे सिपाही ने आवाज दिया । मैंने गाड़ी रोक दी।

सीट पर देखा तो बाबा ने पेशाब कर दिया था । पेशाब देख कर सिपाही गुस्से से उस शक्ति हीन बुड्ढे पर उबल पड़ा और देखते ही देखते 
बुड्ढे को तीन चार तमाचा जड़ दिया ।

    "साला बुड्ढ़ा 

पेशाब जाना है या नहीं 
कुछ बताता भी नहीं साला .....पागल ।"
    
मैंने स्थितियों को संभालते हुए किसी तरह सिपाही को शांत कराया । उसे मानाने में काफी दिक्कत हुई । गाडी मैंने फिर से अस्पताल की ओर बढ़ा दी । कुछ ही पल में हम अस्पताल में दाखिल हो चुके थे । बाबा को खाली बेड पर लिटाया गया। डॉक्टर साहब आये चेक किया और कुछ दवा देकर रेफर टू मेडिकल कालेज की पर्ची बना दिया । अस्पताल में जगह खाली ही नहीं थी अतः हम तीनो  मेडिकल कालेज की 
ओर निकल पड़े ।
रास्ते में बाबा जैसे ही कमजोरी से सर दाहिने या बाएं ले जाना चाहे 
तो सिपाही महोदय तुरंत एक चाटा बाबा को रशीद कर दें ।

      सिपाही की यह हरकत मुझे बहुत बुरी लगती ।मैंने  मना किया फिर भी नहीं माने । अगले कुछ पलों में हम लोग मेडिकल कालेज पहुच गए ।




    बाबा को भर्ती करा दिया गया । बाबा का इलाज शुरू हो गया  । नर्स ने तुरंत बाबा को दो इंजेक्शन दिया । 


      

 बाबा जी को ग्लूकोज डिप्स चढ़नी शुरू हो गयी थी । हॉस्पिटल में एडमिट देख कर मुझे बहुत शांति मिली । बार बार मन में विचार आता कास बाबा का अपना कोई परिवार आज उनके साथ होता तो बाबा की ऐसी गति क्यों होती। यह बेवकूफ सिपाही जिसके अंदर कोई मानवता ही नहीं ...... वह जल्लाद दरोगा जो सिर्फ फायदे के लिए जीता है ..... जिन्हें कभी विभाग की ओर से कोई नैतिक शिक्षा दी ही नहीं गयी । समाज  की भ्रष्टतम इकाई 
बन चुकी है यह पुलिस । अब शरीफ इंसान का थाने जाना भी गुनाह हो जाता है..........|

    

      मैं अस्पताल से बाहर निकल ही रहा था तब तक नर्स ने एक लम्बा चौड़ा दवा का पर्चा पकड़ा दिया । मैंने भर्ती किया था इसलिए दवा खरीदने का नैतिक दायित्व मेरा ही था । 
पर्चा लेकर दूकान गया । कुल 1600 की दवा थी । मेरी जेब में मात्र 100 रूपये ।
     साथी सिपाही से उधार माँगा तो उसने कहा - 
"इतने पैसे मेरी जेब में नहीं । इतना रुपया लेकर हम लोग नहीं चलते । ऐसा करो त्रिपाठी जी ......महराज ....अब अपने कर्तव्य इति श्री करो । ऐसे भला करते रहे तो जल्दी ही सड़क पर आ जाओगे ।
चलो गाडी स्टार्ट करो हमे थाने छोडो.........इस बुड्ढे साले की वजह से रात तो वैसे ही कबाड़ा हो चुकी है ।
अब यह तमाशा बन्द करो । सुबह 
हो गयी है । हमारे भी बी बी बच्चे हैं । सुबह ड्यूटी भी है । "
     एक पल सोचने के बाद निर्ममता से  मैंने भी गाडी स्टार्ट कर दी और घर चल पड़े ।
       ***इति*** 
  नवीन मणि त्रिपाठी
         

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

महफ़िलों में सवर गईं जुल्फ़ें


सलाम  ए  इश्क दे गयीं  जुल्फे ।
महफ़िलों  में सवर गयीं जुल्फे ।।

बड़ी   सहमी   हुई  अदाओं  में ।
तिश्नगी  फिर बढ़ा गयीं जुल्फें ।।

खत्म थे  हौसले  जज्बातों  के ।
कुछ उम्मीदें जगा गयीं जुल्फे ।।

उसे कमसिन न कहो तुम यारों ।
आज लहरा के वो गयी जुल्फे ।।

चाँद  पर  चार  चाँद  है   लगता
गाल पे जब भी छा गयी जुल्फें ।।

जख्म इक उम्र से भरा ही नहीं ।
तीर दिल पर चला गयीं जुल्फें ।।

मेरी  उल्फत की तू बनी शोला ।
घर मेरा फिर जला गयीं जुल्फें ।।

उम्र   गुजरी  है  किन  तजुर्बों से ।
आइना कुछ  दिखा गयीं जुल्फें ।।

बहुत  उलझी हुई  बिखरी बिखरी ।
रात  का  सच  बता गयीं जुल्फें ।।

- नवीन मणि त्रिपाठी

-----ग़ज़ल ------

फना   के   बाद  भी  मेरा  पता  लेकर  गया  कोई ।
कब्र  पे आशिक़ी का कुछ  सिला  देकर गया कोई ।।

हरे  है जख्म  वो  सारे वो यादेँ भी जवां अब तक ।
दर्द   की   बेसुमारी   पर  यहाँ  रोकर  गया  कोई ।।

जूनूने ख्वाब था या फिर हकीकत थी खुदा जाने ।
गुलशन ए इश्क के दर से  दफा होकर गया कोई ।।

आसमा  की  बुलंदी से  हसरतों  ने  कहा  हमसे ।
ज़मी  पर आ रही  हूँ  मैं लगा ठोकर  गया  कोई ।।

हरम की किस्मतों में इश्क लिक्खा ही नहीं जाता।
आरजू  ने  जो घर माँगा  वहां  सोकर गया कोई ।।

हमारे  अंजुमन  की  दास्ताँ   न  पूछ  ऐ   हमदम ।
यहाँ मतलब  परस्ती में  वफ़ा खोकर गया  कोई ।।
      
          - नवीन मणि त्रिपाठी

हमारे ज़ख्म की उलझी सी कहानी तू है


---ग़ज़ल---

मेरी  खामोश  मुहब्बत  की  निशानी तू  है ।
हमारे जख़्म की  उलझी  सी कहानी तू है ।।

जब भी देखी  तेरी तश्वीर  क़यामत आयी।
कैसे कह दूँ कि मेरी आँख का पानी तू है ।।

दर्द की इम्तहाँ बन करके गुजरती अक्सर ।
मेरे ख़्वाबों की महकती  सी जवानी तू हैं ।।

मैकदे में तो  बहुत जाम हैं  लेकिन  साकी ।
होश  आए   न  वो  शराब  पुरानी  तू   है ।।

बड़ी मासूमअदाओं से कत्ल की साजिश ।
मेरी  कातिल  मेरी नज़र में  शयानी तू  है ।।

खिजां ज़ालिम है हसरतों  के उड़ गए पत्ते।
फ़िजा ए शक्ल में मौसम की रवानी  तू है ।।

न  इंतजार का आलम तू  पूछ अब मुझसे ।
न  मुकद्दर  में  हो  वो शाम  सुहानी   तू  है।।

कोई अफ़साना लिखू या लिखूँ  .ग़ज़ल तेरी ।
दरमियाँ   इश्क   जमाने  की जुबानी  तू  है ।।

               --नवीन मणि त्रिपाठी

हम शबे वस्ल में सिर्फ जलते रहे


उम्र  भर   कुछ   सवालात   चलते   रहे ।
हम  शबे  वस्ल   में   सिर्फ  जलते   रहे ।।

बेवफा  तुमने  कह   तो  दिया  फ़ख़्र  से।
रात  दिन  अश्क  आँखों में  ढलते  रहे ।।

जब  तेरी   शोख   नजरे  इनायत   हुई ।
तुम   मिलोगे  कभी  ख्वाब  पलते  रहे ।।

क्या  भरोसा  करू  तेरीे  जज्बात  का ।
तुम भी मौसम के माफिक बदलते  रहे ।।

फ़िक्र  बदनामियों   की   उन्हें  भी  रही ।
वह  नकाबों   में  घर  से  निकलते  रहे ।।

कुछ   तो   रुस्वाइयां  बर्फ   मानिंद  थीं ।
हसरतों   को   लिए  हम  पिघलते  रहे ।।

इक  तिजारत से दौलत  दफ़न  हो  गयी।
कीमत   ए   हुश्न  पर   हाथ  मलते  रहे ।।

ताल्लुक   मैकदे   की   हवाओं  से  था ।
वह    दुपट्टे   में   अपने  सम्भलते   रहे ।।

        --  नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल


इस   कदर  रूठी   है  किस्मत  आजकल।
बे  वजह  लगती   है  तोहमत  आजकल।।

जिसने   तोडा   मुल्क   का  हर  हौसला ।
बन  रही  उसकी  भी  तुरबत  आजकल।।

चन्द   लम्हों    की    लगी   हैं   बोलियाँ ।
अब  कहाँ मिलती है मोहलत आजकल।।

ढूंढ   मत   इन्साफ   की   उम्मीद  अब ।
हर तरफ जहमत ही जहमत आजकल ।।

मत   कहो   मजबूरियों  को  शौक  तुम ।
बिक  रही   बाज़ार  अस्मत  आजकल ।।

लुट  गयी   जागीर   उस   अय्यास  की ।
वह मिटा  है उसकी  निस्बत आजकल ।।

गैर   मुमकिन   है   सराफत   हो    बची ।
हो   गयी  मशहूर   सोहबत   आजकल ।।

वास्ता  जिसका   खुदा   से  कुछ  न था ।
फिर  वहीँ  बरसी  है  रहमत  आजकल ।।

      --नवीन मणि त्रिपाठी