तीखी कलम से

रविवार, 25 सितंबर 2016

ग़ज़ल - हज़ार दर्द सुनाना है बात क्या करना

ग़ज़ल --बहरे मुजतस मुसमन मख़बून महजूफ़
मुफाइलुन्  फइलातुन्  मुफाइलुन्  फेलुन
1212  1122  1212   22

बड़ा   खराब   ज़माना  है  बात  क्या  करना ।
मेरी  ग़ज़ल  पे  निशाना  है बात क्या करना ।।

नहीं है नज्म की तहजीब जिस मुसाफिर को ।
उसी से दिल का फ़साना है बात क्या करना ।।

अजीब  शख़्स  यूँ  पढ़ता  उन्हीं  निगाहों  को ।
किसी  को  वक्त गवाना  है बात क्या  करना ।।

बिखर  गए  है  तरन्नुम  के  हर्फ़ महफ़िल में ।
नजर नज़र से मिलाना  है बात क्या  करना ।।

हुजूर   जिन  से  दुपट्टे   कभी   नही   सँभले ।
उसे भी घर  को  बसाना  है बात क्या करना ।।

दिखी है आग  जो  दरिया में  तेज लपटों सी ।
वहीं से डूब  के आना  है  बात  क्या  करना ।।

नया  नया  है  वो  शायर  उसे  न  छेड़ो  तुम ।
हजार  दर्द   सुनाना   है  बात   क्या  करना ।।

घनी  है जुल्फ बहकती  सी  शोख़  नजरें  हैं ।
मियाँ  नकाब  उठाना  है  बात  क्या  करना ।।

गुजर न रोज़ अदाओ  के  साथ बन ठन कर ।
तुझे  तो  आग  लगाना  है  बात  क्या  करना ।।

ये   हाशिये   जो   मुकद्दर  के  दरमियां  मेरे ।
फ़ना  का फर्ज  निभाना है बात क्या करना ।।

              --नवीन मणि त्रिपाठी

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