तीखी कलम से

सोमवार, 17 अक्टूबर 2016

हर मयक़शी के बीच कई सिलसिले मिले

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हर मयकशी के बीच कई  सिलसिले मिले ।
देखा  तो  मयकदा  में  कई मयकदे  मिले ।।

साकी शराब डाल के हँस  कर के यूं  कहा।
आ   जाइए    हुजूर   मुकद्दर  भले   मिले ।।

कैसे   कहूँ   खुदा  की  इबादत  नहीं  वहां ।
रिन्दों के  साथ में भी नए  फ़लसफ़े  मिले ।।

यह बात और  है की  उसे  होश  आ  गया ।
वरना   तमाम  रात  उसे   मनचले   मिले ।।

जिसको फ़कीर जान के करता था एहतराम।
चर्चा  उसी  के  घर  में   ख़ज़ाने  दबे  मिले ।।

मुझ से न पूछिए कि  ज़माने  से क्या मिला ।
बदले  मिज़ाज़ ले  के  यहाँ  सिरफ़िरे  मिले ।।

पीना गुनाह  था  तो शराफ़त क्यूँ  छोड़ दी ।
कुछ   दाग  उसूलों  में  बड़े    बेतुके  मिले ।।

बेचैनियाँ     सबूत     हजारों    बता   गयीं ।
अक्सर  ही  सिलवटों  में  तेरे  बिस्तरे मिले ।।

क़ातिल तेरी निगाह में कुछ ख़ासियत तो है ।
दीवानगी    में   लोग   बहुत   गमज़दे   मिले ।।

हुस्नो शबाब भर  के जो बोतल  उछाल  दी ।
साकी   शरीफ़  लोग  शराफ़त  कटे   मिले ।।


                 --- नवीन मणि त्रिपाठी

1 टिप्पणी:

  1. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (19-10-2016) के चर्चा मंच "डाकिया दाल लाया" {चर्चा अंक- 2500} पर भी होगी!
    करवाचौथ की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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