तीखी कलम से

गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

अजीब मंजर है बेखुदी का अजीब मेरी सहर रही है

121  22  121 22 121 22 121 22

न वक्त का कुछ पता ठिकाना 
न  रात  मेरी   गुज़र  रही   है ।
अजीब  मंजर  है  बेखुदी का ,
अजीब   मेरी  सहर   रही  है ।।

ग़ज़ल के मिसरों में  गुनगुना के ,
जो दर्द लब  से  बयां  हुआ था ।
हवा   चली  जो  खिलाफ  मेरे ,
जुबाँ वो  खुद से मुकर  रही है ।।

है  जख़्म अबतक  हरा हरा ये ,
तेरी  नज़र  का सलाम क्या लूँ ।
तेरी  अदा  हो   तुझे  मुबारक ,
नज़र   से   मेरे  उतर  रही  है ।।

मिरे   सुकूँ  को  तबाह  करके ,
गुरूर  इतना  तुझे  हुआ  क्यूँ ।
तुझे  पता  है   तेरी  हिमाकत ,
सवाल बनकर  अखर रही है ।।

न वस्ल को तुम भुला सकी हो, 
न  हिज्र  को मैं भुला ही पाया ।
यहाँ  रकीबों  की  वादियों   में ,
तेरी  ही  खुशबू बिखर रही है ।।

हमारे   दिल  में  हमी  से  पर्दा ,
गुनाह  कुछ  तो  छुपा गई  हो ।
है  दिल का  कोई नया  मसीहा , 
तू जिसके दम पे निखर रही है ।।

किसी  तबस्सुम  की  दास्ताँ  पे ,
फ़ना  हुआ  है गुमान  जिसका ।
है  कत्ल  खाने  में जश्न  इसका,
कज़ा की महफ़िल गुजर रही है ।।

हुजूर    चिलमन   से    देखते  हैं ,
गजब  का  मौसम है कातिलाना ।
ये इश्क भी क्या अजब का फन है 
नज़र   नज़र  पे   ठहर  रही   है ।।

तमाम  रातो  के   सिलसिलों   में ,
खतों  से  अक्सर  पयाम  आया ।
जो  चोट मुझको मिली थी तुझसे 
वो  फ़िक्र  बनकर  उभर रही है ।।

             ----- नवीन मणि त्रिपाठी

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