तीखी कलम से

बुधवार, 28 दिसंबर 2016

ग़ज़ल - इक ग़ज़ल मेरी सुनाकर देखिये

2122 2122 212

चाँद को, महफ़िल में आकर देखिये ।
इक   ग़ज़ल मेरी  सुनाकर  देखिये ।।

गर   मिटानी  हैं जिगर की ख्वाहिशें ।
इस तरह मत छुप छुपाकर देखिये ।।

ये   रकीबों  का  नगर  है  मान  लें।
इक  रपट  मेरी  लिखाकर  देखिये ।।

हुस्न   पर   पर्दा  मुनासिब  है  नहीं ।
बज़्म में चिलमन  उठाकर  देखिये ।।

क्यों  फ़िदा हैं लोग शायद कुछ तो है ।
आइने   में   हुस्न  जाकर   देखिये ।।

हैं    हवाएँ   गर्म    कुछ्  बेचैन  मन ।
तिश्नगी   थोड़ी   बुझा  कर  देखिये ।।

आप  के  कहने  से तौबा कर लिया ।
मैकदा   से   रूह   लाकर   देखिये ।।

फेसबुक  से  यूँ   हटाना  बस में था ।
अब जरा  दिल  से हटाकर  देखिये ।।

सिर्फ  इल्जामो  का  चलता कारवाँ ।
फर्ज कुछ अपना निभाकर देखिये ।।

आप मेरे  इश्क़  के  काबिल तो  हैं ।
हो सके तो  दिल  मिलाकर देखिये ।।

दीन  हो  जाए   न  ये  बर्बाद  अब ।
मत  हमें  नज़रें  झुकाकर  देखिये ।।

कत्ल   होने   का  इरादा  था  मेरा ।
बेवजह  मत  आजमाकर  देखिये ।।

धड़कने   देंगी  गवाही  फ़िक्र   की ।
खत मेरा दिल से लगाकर  देखिये ।।

जख़्म का होता कहाँ मुझपर असर ।
तीर  जितने  हों  चलाकर  देखिये ।।

ताक   में   बैठे   सभी  ओले   यहाँ ।
दम  अगर है  सर  मुड़ाकर  देखिये ।।

दर्द   ये   काफूर   हो   जाए   मिरा ।
कुछ रहम में  मुस्कुरा  कर  देखिये ।।

              -- नवीन मणि त्रिपाठी

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (30-12-2016) को "महफ़ूज़ ज़िंदगी रखना" (चर्चा अंक-2572) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं