तीखी कलम से

गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

वो सुर्खरू चेहरे पे कुछ आवारगी पढ़ने लगी

----------*****  ग़ज़ल ******-------

बहरे रजज़ मुसम्मन सालिम 
मुस्तफइलुन मुस्तफइलुन मुस्तफइलुन मुस्तफइलुन
2212   2212   2212   2212 

शर्मो  हया  के   साथ   कुछ  दीवानगी   पढ़ने  लगी।
वो  सुर्खरूं  चेहरे  पे  कुछ  आवारगी  पढ़ने   लगी ।।

हर  हर्फ़  का  मतलब  निकाला जा रहा खत में यहां ।
खत के लिफाफा पर वो दिल की बानगी पढ़ने लगी ।।

वह  बेसबब  रातों में आना और  वो पायल की धुन ।
शायद  गुजरती  रात  की  वह  तीरगी  पढ़ने   लगी ।।

गोया  के  वो महफ़िल में आई  बाद  मुद्दत के  मगर ।
ये क्या  हुआ  उसको जो  मेरी  सादगी  पढ़ने  लगी ।।

कुछ  हसरतों  को दफ़्न कर देने पे ये तोहफा मिला ।
वो  फिर  तबस्सुम  को  लिए  मर्दानगी  पढ़ने  लगी ।।

बहकी  अदा  तो  वस्ल  के  अंजाम  तक  लाई  उसे ।
पैकर  पे  आकर   फिर  नज़र  शर्मिंदगी  पढ़ने लगी ।।

नज़दीकियों  के  बीच   में  पर्दा  न  कोई   रह   गया ।
मेरी   जलालत   में    मेरी    बेपर्दगी    पढ़ने    लगी ।।

सहमी  हुई  थी आँख  वो  सहमा मिला था दिल  तेरा ।
कुछ  हिज्र   पर  गमगीन  था नाराजगी  पढ़ने  लगी ।।

खामोशियाँ  थीं लफ्ज पर जज्बात फिर  भी  थे जवाँ ।
नज़रों से  निकली हुस्न की  वो  बन्दगी  पढ़ने  लगी ।।

ये  आधियों  का  जुर्म , पर  झंडा वहीँ   कायम  रहा ।
अब   वो   हमारे इश्क़ की  हर तिश्नगी   पढ़ने  लगी ।।

            -- नवीन मणि त्रिपाठी

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (24-12-2016) को गांवों की बात कौन करेगा" (चर्चा अंक-2566) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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