तीखी कलम से

गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

हरम में घुंघरुओं से कुछ तराने छूट जाते हैं

----*********** "ग़ज़ल "***********----
        ( 25 शेरों से युत ग़ज़ल।पहली बार )
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अदा के   साथ  ऐ  ज़ालिम,   ज़माने  छूट  जाते  हैं ।
मुहब्बत  क्यों  ख़ज़ानो   से  ख़ज़ाने  छूट  जाते  हैं ।।

तजुर्बा   है   बहुत  हर  उम्र  की   उन  दास्तानों   में ।
तेरीे   ज़द्दो  ज़ेहद   में  कुछ  फ़साने   छूट  जाते  हैं ।।

बहुत चुनचुन के रंज़ोगम को जो लिखता रहाअपना।
सनम   से   इंतक़ामों   में   निशाने  छूट   जाते   हैं ।।

रक़ीबों  से  मुसीबत का कहर बरपा  हुआ  तब  से  ।
हरम   में  घुंघरुओं  से  कुछ   तराने  छूट  जाते  हैं  ।।

वो  कुर्बानी   है  बेटी  की  जरा  ज़ज़्बात  से  पूछो ।
नए   घर   को   बसाने   में   घराने   छूट  जाते   हैं ।।

गरीबों  की  खबर  से  है  कमाई   का  कहाँ   नाता । 
 के  चैनल  पर  कई  आंसू  दिखाने  छूट  जाते   है ।।

नहीं  साँसे  बची   हैं  अब   सबक़  के  वास्ते   तेरे ।
वफ़ा के  फ़र्ज  भी  अक्सर  बताने   छूट  जाते  हैं ।।

मुखौटे  ओढ़  के  बैठे  हुए  जो  ख़ास  है  दिखते ।
कई   रिश्ते   सुना  है  आज़माने   छूट  जाते  हैं ।।

यहां  सावन नहीं बरसा  वहां  फागुन  नहीं  आया।
ये  रोटी-दाल  में   मौसम  सुहाने   छूट  जाते  हैं ।।

गरीबी   आग   में  झुलसे   हुए  इंसान   से   पूछो।
हवा  के  साथ  कुछ  सपने  पुराने  छूट  जाते हैं ।।

मकाँ लाखो बना कर बेअदब सी सख्सियत जो हैं ।
बड़े   लोगों  से  अपने  घर  बनाने   छूट  जाते  हैं ।।

परिंदों  का भरोसा  क्या  कभी  ठहरे   नही   हैं वो ।
बदलते  ही  नया   मौसम   ठिकाने   छूट  जाते  हैं ।।

न औकातों  से  ऊपर  उठ  मुहब्बत  ज़ान  लेवा  है ।
यहां  लोगो   से   कुछ  वादे  निभाने  छूट  जाते  हैं ।।

सियासत  लाश  पर  करके  वो  रोटी  सेंक लेता है ।
सियासत  दां  से क्यूँ  मरहम  लगाने  छूट जाते  हैं ।।

खुशामद  कर  अनाड़ी   पा  रहे  सम्मान  सत्ता  से ।
ये   हिन्दुस्तान   है   प्यारे   सयाने   छूट  जाते   हैं ।।

जो खुशबू की तरह  बिखरे फ़िजा से रूबरू होकर  ।
नई   महफ़िल  में  वो  शायर बुलाने  छूट  जाते  हैं ।।

न कर साकी से तू  यारी उसे  दौलत  बहुत  प्यारी ।
यहाँ   तिश्ना  लबों  को  मय  पिलाने  छूट जाते हैं ।।

अदालत  में  सुबूतो  पर  है लग  जाती  सही बोली ।
कई   मुज़रिम  भी  दौलत  के  बहाने  छूट जाते हैं ।।

है क़ातिल  का शहर  यह ढूढ़ मत  अपनी  वफादारी ।
मुहब्बत   से  बचो  तो   क़त्ल  खाने   छूट  जाते  हैं ।।

बयां  करके  गया  है ख़त भी तेरे  हुस्न  का  ज़लवा ।
तुम्हारे   हाथ  से  कुछ  ख़त  ज़लाने  छूट  जाते  हैं ।।

बहुत  मुद्दत  से  वो  लिखता  रहा  है  नाम  रेतों  पर ।
समन्दर   से   सभी   अक्षर   मिटाने   छूट  जाते   हैं ।।

मिला  है   वह  गले   मेरे  मगर  ख़ंजर   छुपा  करके ।
वो  नफ़रत  के   किले  उससे  ढहाने   छूट  जाते  हैं ।।

हवाला   उम्र    का   देकर   दरिंदे   फिर  बचे   देखो ।
लिखी  तहरीर   में   क्यों   ज़िक़्रख़ाने  छूट  जाते  हैं ।।

वो   चौराहे   पे  बैठी  थी  नकबो  से  अलग  हटकर ।
सुना  है   उम्र  पर   फैशन   दिखाने   छूट  जाते   हैं ।।

ग़ज़ल  की   तिश्नगी  है  बेकरारी  का सबब  आलिम ।
बिना   शबनम   स्वरों   में  गुनगुनाने   छूट   जाते  हैं ।।

                          
                                    --नवीन मणि त्रिपाठी 

(मित्रो ग़ज़ल कम से कम 5 शेर और अधिकतम 25 शेरो तक लिखी जाती है मैंने पहली बार इतनी बड़ी ग़ज़ल लिखी है आपको कैसी लगी।

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