तीखी कलम से

रविवार, 22 जनवरी 2017

ग़ज़ल - जुर्म की हर इंतिहा को पार कर जाते हैं लोग

2122  2122  2122  212

इस  तरह  कुछ जोश में हद से गुज़र जाते  हैं लोग।
जुर्म  की  हर  इन्तिहाँ  को पार कर  जाते हैं लोग ।।

हर  तरफ  जलते   मकाँ   है  आदमी  खामोश  है ।
कुछ  सुकूँ  के वास्ते  जाने  किधर  जाते  हैं लोग ।।

अहमियत रिश्तों  की  मिटती जा रही इस दौर में ।
है कोई शमशान वह अक्सर जिधर जाते हैं लोग ।।

यह शिकन ज़ाहिर न हो चेहरा न हो जाए किताब।
आईने  के  सामने   कितना  सवर जाते  हैं लोग।।

गाँव  खाली  हो  रहा  कुछ   रोटियों   की  फेर में ।
माँ का आँचल छोड़ कर देखो शहर जाते हैं लोग।।

बाप  की  थीं  ख्वाहिशें  बेटा  निभाए  उम्र  तक  ।
हो बुढ़ापे का  तकाजा  तो  मुकर  जाते  हैं लोग ।।

देखिये   मतलब  परस्ती  का   ज़माना  आ  गया ।
मांगिये  थोड़ी  मदद  तो  खूब  डर जाते  हैं लोग ।।

कौन   कहता  दौलतों   से  वास्ता   उनका   नहीं ।
कुर्सियो  पर  बैठकर  काफ़ी निखर जाते हैं लोग ।।

ऐ  मुसाफिर  यह  हक़ीक़त  भी  हमे  मालूम   है ।
इश्क़ में कुछ ठोकरें  खाकर बिखर जाते हैं लोग ।।

बिक गया मजबूरियों  के नाम  पर  वह हुस्न भी ।
घुंघरुओं  के  बज्म  में  चारो  पहर जाते हैं लोग ।।

भूल  जाना  भी  मुकद्दर  का  बड़ा  तोहफ़ा यहां ।
दर्द  की  तासीर  बन  दिल में ठहर जाते हैं लोग ।।

               --नवीन मणि त्रिपाठी

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (24-01-2017) को "होने लगे बबाल" (चर्चा अंक-2584) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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