तीखी कलम से

मंगलवार, 28 मार्च 2017

ग़ज़ल -

वज़्न - 2122 1122 1122 22/112

अब्रे  जहराब   से  बरसा   है  ये   कैसा   पानी ।
भर  गया  मुल्क  की आँखों  में हया का  पानी ।।

मिट  ही जाए न कहीं शाख जे एन यू की अब ।
आइये   साफ़  करें  मिल  के  ये  गन्दा   पानी।।

मन्नतें  उन की  हैं  हो  जाएं  वतन   के  टुकड़े ।
सर  के  ऊपर  से  निकल जाए न खारा   पानी ।।

कुछ हैं जयचन्द सुख़नवर जो खुशामद में लगे ।
बेच   बैठे   हैं  जो  इमानो   कलम   का  पानी ।।

आलिमों  का  है  ये  तालीम  ख़ता   कौन  कहे ।
ख़ास  साजिश  के  तहत हद  से  गुजारा पानी ।।

जल  गए  अम्नो  सुकूँ  ख़ाक  चमन  कर  बैठे ।
देखिये   शह्र   में  अब   आग   लगाता   पानी ।।

हो  रहे  पाक  परस्ती   में  वो   मशहूर   बहुत ।
ले  रहे  मौज  से    जो  देश  में  दाना    पानी ।।

तालिबानों  का हक़ीक़त से  भला क्या  रिश्ता ।
भेजते   अक्ल   सरेआम   वो   काला   पानी ।।

हर  तरफ  धुंध है  छाया  है  घना  सा  कुहरा ।
खौफ   ख़ातिर  है  यहां  देर  से ठहरा  पानी ।।

बुनते  साजिश  हैं  ये गद्दार  बगावत के  लिए ।
तल्ख़  अरमान   पे  लोगों  ने  बिखेरा  पानी ।।

         --नवीन मणि त्रिपाठी

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